9 years of Modi Govt: 90 फीसदी मुसलमानों के हक में है मोदी सरकार की नीतियां और फैसले
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9 years of Modi Govt: 90 फीसदी मुसलमानों के हक में है मोदी सरकार की नीतियां और फैसले

9 years of Modi Government: केंद्र में भाजपा नीत मोदी सरकार के कार्यकाल के 9 साल पूरे हो गए हैं. सरकार अवाम के बीच अपनी उपलब्धियां गिना रही है. सरकार के इन 9 सालों में मुस्लिम समाज को क्या फायदा और नुकसान हुआ, ये बता रहे हैं पसमांदा मुस्लिम आंदोलन से जुड़े नेता और कार्यकर्ता डॉ. फैयाज अहमद फैजी. 

डॉ. फैयाज अहमद फैजी

जकल मीडिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के कार्यकाल यानी पिछले 9 वर्षो के लेखा-जोखा पर खूब चर्चा हो रही है. पक्ष-विपक्ष अपने-अपने हिसाब से सरकार के गुण और दोष की विवेचना कर विरोध और समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहा है. वहीं, सरकार के काम-काज को लेकर राजनैतिक पक्ष-विपक्ष के अलावा सामाजिक संगठन और संस्थाएं भी अपने-अपने मत विमत को मजबूती के साथ लोगों के सामने ला रही है. इस संदर्भ इस सरकार के शासन में मुस्लिम समाज को मिलने वाले लाभ और हानि पर भी चर्चा की जा रही है. 

अब तक यह एक विडंबना रही है कि मुस्लिम समाज को एक समरूप समाज माना जाता रहा है, जबकि मुस्लिम समाज में भी सामाजिक स्तरीकरण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. यहां साफ तौर पर सम्पन्न शासक वर्गीय अशराफ जो कुल मुस्लिम जनसंख्या का 10 फीसदी है, और वंचित देशज यानी पसमांदा तबका जिसकी संख्या कुल मुस्लिम आबादी का 90 प्रतिशत है, के बीच विभेद परिलक्षित होता है. इसलिए अगर इस सरकार में मुस्लिम समाज को मिले फायदे नुकसान की विवेचना करना है, तो यह यह देखना होगा कि सरकार की नीतियों से मुस्लिम समाज का बहुसंख्यक वंचित तबका कितना प्रभावित और लाभांवित हुआ है ?  

मोदी की नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा कुछ बड़े और महत्वपूर्ण फैसले लिए गए हैं, जिनका सीधा ताल्लुक मुस्लिम समाज से बताया जाता है, जिसमें कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, तीन तलाक पर प्रतिबंध, मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात, पसमांदा मुद्दे पर विमर्श और देशभर में समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में सरकार का आगे बढ़ना शामिल है. 
उपर्युक्त सभी कार्यों की हिन्दू समाज के तथाकथित सेक्युलर लिबरल, हिन्दू समाज में सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत सामाजिक संगठन और राजनैतिक पार्टियां और मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाले अशराफ वर्ग द्वारा कटु आलोचना करते हुए इसे मुस्लिम विरोधी बताया जा रहा है, लेकिन इस बात की ईमानदार विवेचना जरूरी है कि क्या सरकार के ये काम वाकई मुस्लिम विरोधी हैं? 

सबसे पहले अनुच्छेद 370 पर बात करते हैं, जो कश्मीर राज्य को अन्य राज्यो की अपेक्षा कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकार देता था. अगर कश्मीर भी भारत के अन्य राज्यों की तरह राज्य बनता है, तो निश्चय ही यह वहां रहने वाले पसमांदा मुसलमानों के हित में अच्छा होगा जो अब तक लगभग सभी क्षेत्रों में अन्य राज्यों के पसमांदा मुसलमानों की तुलना में पीछे रह गए हैं. हालांकि, यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि अन्य राज्यां के अशराफ वर्ग सभी मामलो में सम्बंधित राज्य के पसमांदा समाज से बहुत आगे है लेकिन कश्मीर में यह अन्तर और भी बड़ा हो जाता है.

केंद्र सरकार की बहुत-सी लोक कल्याणकारी परियोजनाएं सहित सामाजिक न्याय का आरक्षण जो अब तक विशेषाधिकार होने के कारण पूरी तरह से कश्मीर में लागू नहीं हो पाता था और जिसका सीधा नुकसान वहां के देशज पसमांदा समाज को उठाना पड़ता था, अब कश्मीर का पसमांदा समाज भी मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के पसमांदा की तरह विकास के समान अवसर का लाभ उठाने का अधिकारी होगा.  

इस सरकार का दूसरा महत्वपूर्ण फैसला तीन तलाक के प्रतिबंध का था. इसे भी मुस्लिम मामलो में सरकार के हस्तक्षेप के रूप में प्रचारित किया गया, जबकि सच्चाई यह है कि तीन तलाक से पीड़ित सबसे अधिक पसमांदा महिलाएं और पुरुष थे, क्योंकि धर्मांतरित होने के बाद भी शादी-विवाह के मामले में पसमांदा समाज अपने भारतीय कल्चर का ही अनुसरण करता है, जिसमें विवाह का टूटना एक कलंक के रूप में माना जाता है. शादी का टूटना न सिर्फ किसी लड़की के लिए बल्कि लड़कों के लिए भी मुश्किल साबित होता है. दूसरी शादी दोनों के लिए एक दुरूह कार्य साबित होती है. इस तरह दोनों का जीवन मुश्किलों से घिर जाता है. शादी टूटने के बाद पुरुष तो जैसे-तैसे अपना जीवन यापन कर लेता है, लेकिन महिलाओं के सामने जीवन गुजारना एक बड़ी चुनौती होती है. तलाकशुदा औरतों के लिए जीवन भर पिता और भाई के ऊपर निर्भर रह कर जीवनयापन करना किसी सजा से कम नहीं होता है. इसके विपरित अशराफ समाज में दूसरा निकाह बहुत आसानी से हो जाता है, क्योंकि उनके कल्चर (अरबी/ईरानी) में दूसरा निकाह और बहु-विवाह एक आम-सी बात है. इसलिए उन्हें इस मामले में आम तौर से किसी विशेष दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता है.
मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात करते हुए वंचित पसमांदा मुसलमानों के दुःख दर्द की बात कर मोदी सरकार ने अब तक के अछूत समझे जाने वाले पसमांदा विमर्श को राष्ट्रीय स्तर पर बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है. विदित हो कि सरकारी संस्थाओं और सरकार द्वारा प्रदत्त शिक्षा और नौकरियों में तो पसमांदा समाज की थोड़ी-बहुत भागिदारी दिखती भी है, लेकिन मुस्लिम नाम से चलने वाली सरकारी, अर्ध सरकारी और गैर- सरकारी संस्थाओं जैसे- मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मदरसा बोर्ड, उर्दू बोर्ड, वक़्फ़ बोर्ड, बड़े मदरसे, मिल्ली काउंसिल, मजलिसे मुशावरात, इमारत-ए- शरिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और इन्ट्रीगल यूनिवर्सिटी आदि में देशज पसमांदा मुसलमानों की भागिदारी न के बराबर दिखती है. ऐसी स्थिति न तो मुस्लिम समाज के हित में है और ना ही देश हित में है. इसलिए मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात करना न सिर्फ 90 प्रतिशत मुसलमानों (वंचित पसमांदा) को मुख्य धारा में लाने की कवायद है, बल्कि यह देश को सुदृढ़ बनाने की प्रक्रिया भी है, क्योंकि जैसे ही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय स्थापित होगा मुस्लिम सम्प्रदायिकता भी कमज़ोर पड़ जाएगी. 

आखिर में समान नागरिक संहिता का प्रश्न आता है और इस मुद्दे को लेकर भी बहुत हंगामा बरपा है. कुछ इस तरह से इसके विरुद्ध दुष्प्रचार भी किया जाता है कि अगर यूसीसी लागू हुआ तो मुसलमानों की मजहबी आस्था खतरे में पड़ जाएगी, जबकि देश के अन्य कानून समान रूप से सभी नागरिकों पर लागू हैं, जिससे किसी भी धर्म के मानने वाले और उसकी धार्मिक आस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है. विवाह, संबंध विच्छेद, भरण पोषण, उतराधिकार, विरासत आदि मामले में अगर समरुपता आती है तो यह कैसे किसी धर्म विशेष के विरुद्ध होगा? और दूसरी बात यह कि यूसीसी के लिए संविधान में स्पष्ट दिशा-निर्देश है कि राज्य इसको लागू करने का प्रयास करें. अगर सरकार ऐसा करती है तो यह संविधान के मंशा के अनुरूप ही होगा न कि उसके विरूद्ध? 
इस तरह हम देखते हैं कि मोदी सरकार द्वारा मुसलमानों से संबंधित उपर्युक्त फैसले और नीतियां 90 फीसदी मुसलमानों (देशज पसमांदा) के हित में है. जब कोई कार्य या नीति 90 फीसदी मुसलमानों को फायदा पहुंचा रही है, तो फिर इन कार्यों और नीतियों को मुस्लिम विरोधी कहना कितना उचित होगा ? 

:- डॉ. फैयाज अहमद फैजी
लेखक पसमांदा मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता और स्तंभकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं. 

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