Manmohan Singh Nuclear Deal Story: अमेरिका के साथ 2008 का परमाणु समझौता भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर है. इस समझौते ने भारत को 'परमाणु अछूत' की छवि से आजाद कराया. ग्लोबल न्यूक्लियर तकनीक और फ्यूल तक हमारी पहुंच सुनिश्चित हुई. इस समझौते ही पटकथा 2005 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बीच एक साझा बयान के साथ शुरू होती है. समझौते को अंतिम रूप देने में निर्णायक भूमिका एक साधारण टिशू पेपर पर लिखे अहम नोट ने निभाई. मनमोहन के हाथ में यह नोट थमाया था परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर ने. पढ़िए, पूर्व पीएम मनमोहन सिंह से जुड़ा वह किस्सा.
वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन ही देश में आर्थिक सुधारों के जनक माने जाते हैं. 90s और फिर 2000s के शुरुआती दौर में भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी. ऊर्जा की बढ़ती मांग ने सरकार को भरोसेमंद और स्थायी ऊर्जा स्रोतों की जरूरत महसूस कराई. लेकिन परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर न करने की वजह से भारत ग्लोबल न्यूक्लियर ट्रेड से बाहर था. इससे भारत अपने एनर्जी सेक्टर को डायवर्सिफाई नहीं कर पा रहा था, साथ ही जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने की प्रक्रिया भी धीमी हो गई.
परमाणु समझौते के लिए, भारत को अपने असैन्य और सैन्य परमाणु कार्यक्रम को अलग करना पड़ा और अपने असैन्य प्रतिष्ठानों को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की निगरानी में रखना पड़ा. अमेरिका को भी अपने घरेलू कानूनों में संशोधन कर भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) से छूट दिलवानी पड़ी.
जुलाई 2005 में, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के बीच वाशिंगटन में समझौते को फाइनल करने के लिए बातचीत हुई. दोनों पक्षों के बीच उत्साहजनक माहौल था, लेकिन आखिरी वक्त में भारतीय प्रतिनिधिमंडल, खासकर परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) के अध्यक्ष अनिल काकोडकर (फोटो में, चेक कोट) ने कुछ शर्तों पर आपत्ति जताई. काकोडकर ने भारत के तीन-स्तरीय रणनीतिक परमाणु कार्यक्रम की स्वायत्तता पर संभावित प्रतिबंधों को लेकर चिंता जाहिर की.
उनका कहना था कि इस तकनीक का विकास विदेशी निरीक्षकों की निगरानी में नहीं हो सकता. यह भारत की थोरियम-आधारित रिएक्टर योजनाओं के लिए महत्वपूर्ण था. जब इस गतिरोध की खबर अमेरिकी पक्ष तक पहुंची, तो अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने दखल दिया. उन्होंने समझौते को आगे बढ़ाने के लिए भारतीय पक्ष को बातचीत का एक और मौका देने की गुजारिश की.
सुबह, बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अनिल काकोडकर से सीधे पूछा कि उन्हें क्या मंजूर होगा. काकोडकर ने टेबल पर रखे एक टिशू पेपर को उठाया और उस पर दो लाइनें लिखीं: 'हमारे तीन-स्तरीय रणनीतिक कार्यक्रम की स्वायत्तता पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं होना चाहिए.'
प्रधानमंत्री ने यह नोट तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह को दिया, जिन्होंने इसे अमेरिकी पक्ष को दिखाया. कोंडोलीजा राइस ने इस पर सहमति जताई और कहा कि इसे स्वीकार किया जा सकता है. इसके बाद दोनों पक्षों ने समझौते के अंतिम मसौदे पर काम करना शुरू किया.
काकोडकर के उस नोट ने वह गतिरोध तोड़ा, जिसने बातचीत को लगभग फेल होने के कगार पर ला दिया था. उस नोट ने यह सुनिश्चित किया कि भारत का रणनीतिक परमाणु कार्यक्रम बेअसर रहे. समझौते के तहत, अमेरिका ने भारत को एक 'उत्तरदायी राज्य' के रूप में मान्यता दी और भारत को वही लाभ और सुविधाएं प्रदान कीं जो अन्य परमाणु शक्तियों को मिलती हैं. अक्टूबर 2008 में, अमेरिकी कांग्रेस ने इस समझौते को अंतिम मंजूरी दी. इसके साथ, भारत को परमाणु प्रौद्योगिकी और ईंधन तक पहुंच मिली, जो उसकी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अहम थी.
2008 का भारत-अमेरिका परमाणु समझौता डॉ. मनमोहन सिंह की राजनीतिक और कूटनीतिक विरासत का एक अहम हिस्सा है. इस समझौते ने भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु सहयोग और ऊर्जा क्षेत्र में नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया. इससे पहले भारत परमाणु परीक्षणों के कारण कई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का सामना कर रहा था.
मनमोहन सिंह ने कूटनीति से वैश्विक समुदाय को यह समझाने में सफलता पाई कि भारत जिम्मेदार परमाणु शक्ति है. इस समझौते के तहत, भारत को अपनी नागरिक परमाणु तकनीक के लिए जरूरी ईंधन और तकनीकी सहायता मिलने लगी, जिससे ऊर्जा संकट को दूर करने में मदद मिली.
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