Aligarh Muslim University: सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वो 1981 में संसद की ओर से पारित उस संसोधन का समर्थन नहीं करते है, जिसके जरिये इस यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया गया था.
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Aligarh Muslim University: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जा बहाली को लेकर चल रही सुनवाई के दौरान आज (24 जनवरी) को एक दिलचस्प मोड़ आया है. सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वो 1981 में संसद की ओर से पारित उस संशोधन का समर्थन नहीं करते है, जिसके जरिये इस यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्ज़ा दिया गया था. इस पर संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे चीफ जस्टिस ने उन्हें टोकते हुए कहा कि सरकार के लॉ अफसर कैसे संसद द्वारा पारित संशोधन को खारिज कर सकते है. सरकार किसी की भी हो, लेकिन एक संस्था के तौर पर संसद हमेशा के लिए है. सॉलिसीटर जनरल होने के नाते आप ये नहीं कह सकते कि आप संसद की ओर से पारित संशोधन के समर्थन में नहीं है.
आखिर किस संशोधन पर हुई जिरह
सुप्रीम कोर्ट और सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता के बीच आज (24 जनवरी) जो चर्चा की वजह बना, वो है -1981 में संसद द्वारा पारित संशोध. ये संशोधन दरअसल तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1967 में सुप्रीम कोर्ट के अज़ीज़ बाशा केस में दिए फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए किया था. 1967 में दिए इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. 1981 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट 1920 में संसोधन कर अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बहाल कर दिया. हालांकि 2006 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1981 में किए इस संशोधन को रद्द कर दिया और कहा कि संविधान के आर्टिकल 30 के तहत यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्ज़ा नहीं दिया जा सकता. हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ यूनिवर्सिटी प्रशासन और तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की. इस पर ही सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है. हालांकि, एनडीए के सत्ता में आने के बाद केंद्र ने अपनी अर्जी वापस ले ली है और इस मसले पर अभी याचिकाकर्ता के तौर पर यूनिवर्सिटी प्रशासन ही बचा है.
चीफ जस्टिस का SG से सवाल
सुनवाई के दौरान आज (24 जनवरी) को सरकार की ओर से पैरवी कर रहे सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वो 1981 में संसद द्वारा पास किये संसोधन के पक्ष में नहीं है. इस पर संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे चीफ जस्टिस ने हैरानी जाहिर की. चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सरकार के एक लॉ अफसर से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो संसद द्वारा पास किये संशोधन का विरोध करें.
एसजी तुषार मेहता ने हालांकि अपने रुख को दोहराते हुए कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी 2006 में संसद के 1981 के संसोधन को कई आधार पर खारिज कर दिया था. ऐसे में एक लॉ अफसर होने के नाते मेरा मानना है कि हाई कोर्ट की राय बिल्कुल ठीक थी.
'सरकार भले ही बदले, संसद स्थायी'
इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि ये अपने आप में अजीबोगरीब है कि एक लॉ अफसर कह रहे है कि वो संसद के पास किए संशोधन को नहीं मानेंगे. सरकार भले ही बदलती रहे लेकिन संसद अपने आप में इससे हटकर एक स्थायी संस्था है. आप कैसे कह सकते है कि आप संशोधन को नहीं मानेंगे.
SG ने इमरजेंसी के दौरान संशोधन का हवाला दिया
चीफ जस्टिस के सवालों की बौछार के मद्देनजर एसजी तुषार मेहता ने अपनी दलीलो के समर्थन में आपातकाल के दौरान हुए संशोधन का हवाला दिया. एस जी ने कहा कि क्या आप एक लॉ अफसर से ये भी उम्मीद करेगे कि वो इमरजेंसी के दौरान हुए संशोधन को भी सही ठहरा दे, सिर्फ इस आधार पर कि वो संशोधन संसद ने पास किए थे.
'संसद चाहे तो ग़लती कभी भी सुधार ले'
इस पर चीफ जस्टिस ने उन्हें टोका -उस संशोधन में जो ग़लती हुई थी, उन्हें खुद संसद ने 44 वे संशोधन के जरिये सुधारा. 44 वां संशोधन इसी लिए लाया गया था. एसजी ने जवाब दिया - यानि हमने माना था कि उस वक़्त ( इमरजेंसी के दौरान ) संसद से गलतियां हुई थी.
इस पर चीफ जस्टिस ने कहा कि आप मेरी ही बात को सही साबित कर रहे है! फैसला लेने का असली अधिकार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों यानि संसद पास है. संसद चाहे तो अपनी गलतियों को सुधार सकती है. संसद को अगर लगता है कि उसने इमरजेंसी के दौरान गलती की है, तो उसे सुधारने का अधिकार उसके पास हमेशा है.