पवनखिंद का वह युद्ध शायद ही कोई आदिलशाही या मुगल सिपाही अपने जीवनकाल में कभी भूला पाया होगा, क्योंकि उन्होंने उस दिन जो युद्ध कौशल अपनी आंखों से देखा वो किसी भी इंसानी सीमा को पार करता था. आइए जानते हैं उस युद्ध के कुछ किस्से.
मराठा और मुगलों के बीच यह युद्ध महाराष्ट्र में स्थित विशालगढ़ किले के पास मौजूद एक पहाड़ी दर्रे पर 1660 में हुआ था. मराठों की ओर से इस युद्ध का नेतृत्व मराठा सरदार बाजीप्रभु देशपांडे ने किया था. यह युद्ध 300 मराठा सैनिक और लगभग 15000 आदिलशाही सैनिकों के बीच लड़ा गया था.
छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में उनके अनेक सेनापतियों ने साथ दिया था जैसे बाजीप्रभु, जाधवराव, बंदाल और तान्हाजी मालुसरे जैसे बहुत सारे लोगों ने साम्राज्य विस्तार में उनका साथ निभाया. इस युद्ध में बाजीप्रभु देशपांडे ने छत्रपति शिवाजी महाराज की सुरक्षा की शपथ लेते हुए 300 सैनिकों को चुना.
इस सेना का लक्ष्य था की छत्रपति सुरक्षित रूप से विशालगढ़ किले तक पहुंचें. पवनखिंद के युद्ध में आदिलशाही सेना बार-बार 300 मराठा सैनिकों को रोकने की कोशिश कर रही थी क्योंकि वो किसी भी तरीके से छत्रपति शिवाजी महाराज को पकड़ना चाहते थे.
दोनों हाथों में तलवार लेकर लड़ रहे बाजीप्रभु देशपांडे का शरीर घावों से भर चुका था फिर भी उन्होंने तलवार थामे रखी और तब तक लड़ते रहे जब तक उन्हें छत्रपति के विशालगढ़ पहुंचने का संकेत नहीं मिल गया. संकेत मिलते ही सैनिक अपने सरदार को बचाने भागे लेकिन घाव ज्यादा होने के कारण उन्होंने दम तोड़ दिया और ये युद्ध आदिलशाही सेना की शर्मनाक हार के साथ खत्म हुआ.
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