Iron Pillar of Delhi: दिल्ली के लौह स्तंभ में क्यों नहीं लगता जंग, वैज्ञानिकों के लिए पहेली बनी प्राचीन भारत की महान कारीगरी
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Iron Pillar of Delhi: दिल्ली के लौह स्तंभ में क्यों नहीं लगता जंग, वैज्ञानिकों के लिए पहेली बनी प्राचीन भारत की महान कारीगरी

History of Iron Pillar of Delhi: कुतुब मीनार के परिसर में लगा लौह स्तंभ किसी चमत्कार से कम नहीं है. यह लौहे का खंभा सदियों से खुले आसमान के नीचे खड़ा है लेकिन इस पर आज तक जंग नहीं लगा है. लौह स्तंभ की ऊंचाई 7.21 मीटर है और यह ज़मीन में 3 फुट 8 इंच नीचे तक गड़ा है. इसका वजन 6000 किलो से अधिक है. 

Iron Pillar of Delhi: दिल्ली के लौह स्तंभ में क्यों नहीं लगता जंग, वैज्ञानिकों के लिए पहेली बनी प्राचीन भारत की महान कारीगरी

Iron Pillar of Delhi Qutub Complex: दिल्ली की कुतुब मीनार यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल है. यह जहां पयर्टकों को मंत्रमुगध कर देती. वहीं कुतुब मीनार के परिसर में लगा लौह स्तंभ भी किसी चमत्कार से कम नहीं है. यह लौहे का खंभा सदियों से खुले आसमान के नीचे खड़ा है लेकिन इस पर आज तक जंग नहीं लगा है.

लौह स्तंभ की ऊंचाई 7.21 मीटर है और यह ज़मीन में 3 फुट 8 इंच नीचे तक गड़ा है. इसका वजन 6000 किलो से अधिक है. इतिहासकारों का मत है कि इसे गर्म के लोहे के 20-30 किलो के टुकड़ों को जोड़ कर बना गया है. हालांकि यह एक बड़ी पहेगी कि लोहे के टुकड़ों से बने इस स्तम्भ में कोई जोड़ क्यों नहीं दिखता.

यह स्तंभ किसने बनाया इसको लेकर इतिहासकारों में एक मत नहीं है लेकिन ज्यादातर लोग मानते हैं कि इसका निर्माण गुप्त वंश के तीसरे शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने करवाया था.

लंबे समय तक लोग मानते रहे है कि...
हालांकि इस स्तम्भ से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस लौह स्तम्भ में आज तक जंग क्यों नहीं लगा. लंबे समय तक लोग यह मानते रहे कि इस स्तम्भ को किसी ऐसी धातु से बनाया गया जो कि पृथ्वी की नहीं है. हालांकि यह संतोषजनक उत्तर नहीं हो सकता.

वैज्ञानिक शोध
हालांकि इस स्तम्भ में जंग न लगने की वजह तलाशने की वैज्ञानिक कोशिश भी हुई है. मीडिया रिपोट्स के मुताबिक 1998 में IIT कानपुर के प्रोफेसर डॉ. आर. सुब्रह्मण्यम ने इस राज का पता लगाने की कोशिश की. अपनी रिसर्च में उन्होंने पाया कि लौह स्तम्भ को बनाते समय पिघले हुए कच्चे लोहे में फास्फोरस को मिलाया गया. इसी की वजह से इसमें आज तक जंग नहीं लग पाया है. बता दें फास्फोरस से जंग लगी चीजों को साफ किया जाता है, क्योंकि जंग इसमें घुल जाता है.

खड़ा हुआ नया सवाल
हालांकि डॉ. आर. सुब्रह्मण्यम भी इस लौह स्तम्भ को लेकर जारी अटकलों को खत्म नहीं कर सकी, बल्कि इसने एक नया सवाल खड़ा कर दिया. दरअसल फास्फोरस की खोज 1669 ईस्वी में हैम्बुर्ग के व्यापारी हेनिंग ब्रांड ने की थी, और स्तंभ का निर्माण उससे करीब 1200 साल पहले किया गया. अब यही माना जा सकता है कि प्राचीन भारत के लोगों को फास्फोरस की जानकारी थी. हालांकि अगर ऐसा था तो इतिहासकारों ने इसका जिक्र क्यों नहीं किया?

रिसर्च में यह भी कहा गया कि इस स्तंभ की संरचना में सुरक्षात्मक परत लगी है. 'मीसावाइट' नाम की यह परत एक लौह ऑक्सिहाइड्रॉक्साइड है. यह दरअसल धातु और जंग के बीच इंटरफेस का काम करती है.

कुछ इतिहासकारों यह तर्क देते हैं कि इस स्तंभ को बनाने में वूज स्टील का इस्तेमाल किया गया है. इसमें कार्बन के साथ-साथ टंगस्टन और वैनेडियम की मात्रा भी होती है जिससे जंग लगने की गति को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

 

इस लौह स्तंभ पर जंग क्यों नहीं लगता इसका कारण जानने के लिए इतिहासकार और वैज्ञानिक कोशिश करते रहेंगे लेकिन एक बात तय है कि प्राचीन भारत के लोग धातुओं के संबंध कुछ ऐसा जानते थे जो आज भी लोगों को नहीं पता.

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