CM Yogi and Urdu: योगी जी, उर्दू कठमुल्ला की नहीं, आनंद नारायण मुल्ला की ज़बान है
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CM Yogi and Urdu: योगी जी, उर्दू कठमुल्ला की नहीं, आनंद नारायण मुल्ला की ज़बान है

उत्तर प्रदेश में विधान सभा में उर्दू भाषा को लेकर दिए गए मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के बयान से उर्दू के कद्रदान नाराज़ हैं. उर्दू न सिर्फ एक खालिस हिन्दुस्तानी जबान है, बल्कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक से लेकर ये मुल्क के कल्चर का एक अहम हिस्सा है. मुल्क में ऐसे कई हिन्दू शायर और अदीब हुए हैं, जिन्होंने उर्दू की खिदमत की है और बदले में उर्दू ने उन्हें इज्ज़त और शोहरत बख्शी है. उर्दू को हुकूमत ने संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल किया है. 

CM Yogi and Urdu: योगी जी, उर्दू कठमुल्ला की नहीं, आनंद नारायण मुल्ला की ज़बान है

विचार  

अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बाँ थी प्यारे,
उफ़ सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से.

मुझे उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ के बयान पर न तो हैरानी है, न किसी तरह की नाराज़गी. मुझे यक़ीन है कि भारत की सबसे बड़ी रियासत के वज़ीरे आला को उर्दू की तारीख़ न तो पता है, और न ही किसी ने उनको उर्दू के इतिहास के बारे में बताने की ज़हमत की होगी. अगर वो उर्दू को जानते तो असेंबली में इस तरह का बयान कभी नहीं देते. 

अब ज़िम्मेदारी पढ़े-लिखे लोगों और इतिहासकारों की है कि वो योगी जी तक उर्दू की तारीख़ पहुंचाएं और उन्हें बताएं कि हिंदुस्तान की जो तहज़ीब सदियों से बरक़रार है, उसकी बुनियाद में उर्दू रची और बसी है. योगी जी तक ये बात पहुंचाई जाए कि हिंदुस्तान उर्दू का मकान है, उर्दू हिंदुस्तान की मेहमान नही है. उर्दू ने यहीं पर आंखें खोली, यहीं पली-बढ़ी और परवान चढ़ी है. उर्दू मज़हबों मिल्लत की क़ैदो-बन्द को तोड़कर हर दिल पर राज करती है. ग़ौर से सुनिएगा तो मंदिरों की घंटियों में उर्दू की धमक सुनाई देगी. गुरुद्वारों के नज़्मों-ज़ब्त में उर्दू की नज़ाकतो- नफ़ासत नज़र आएगी. इबादतख़ानों में बैठिएगा तो ज़िक्रो-फ़िक्र की महफ़िलों में उर्दू ही ज़ानूए अदब तय करती हुई नज़र आएगी.

होली के रंगों, दीवाली की मिठाईयों और ईद की सेवईयों में उर्दू की ही ख़ुशबू बसी है. ताजमहल के अज़ीम-तरीन एवान में उर्दू इतराती हुई नज़र आएगी. क़ुतुबमीनार की बुलंदी पर भी उर्दू दिखाई देगी. लाल क़िले की फ़सीलों पर उर्दू के ही चराग़ जल रहे हैं. हीर रांझा, शीरीं फ़रहाद और लैला मजनू के अरमानों में भी उर्दू ही नज़र आएगी. उर्दू टूटे और बिखरे इंसानी जज़्बात और रिश्तों को जोड़ती नज़र आएगी.

जहाँ जहाँ कोई उर्दू ज़बान बोलता है,
वहीं वहीं मेरा हिन्दोस्तान बोलता है.

योगी जी को ये भी बताया जाए कि उर्दू कठमुल्ला की नहीं आनंद नारायण मुल्ला की ज़बान है. रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़बान है.
कृष्ण बिहारी नूर की ज़बान है. ब्रिज नारायण चकबस्त की ज़बान है. मुंशी प्रेमचंद की ज़बान है. राम प्रसाद बिस्मिल की ज़बान है. तिलोकचंद महरूम की ज़बान है. गोपी चंद नारंग की ज़बान है. आनंद मोहन ज़ुत्शी की ज़बान है. राजेंद्र सिंह बेदी की ज़बान है. कुँवर महेंद्र सिंह बेदी की ज़बान है. कृष्ण चंद्र की ज़बान है. ज्ञान चंद जैन की ज़बान है. दुष्यंत कुमार की ज़बान है. जगन्नाथ आज़ाद की ज़बान है. ये लिटरेचर के जानकारों की ज़िम्मेदारी है कि इतिहास के पन्नों मे दर्ज ये सारी दास्तानें योगी जी को बताएं. 

उर्दू अगर भारत की सदियों पुरानी रिवायत में नज़र न आए. उर्दू अगर मुंशी प्रेमचंद में नज़र न आए. तो कम से कम मुल्क की आज़ादी की तारीख़ को खंगाल लीजिए और योगी जी को वो क़िस्सा बता दीजिए कि तहरीके आज़ादी में उर्दू ज़बान ने भी इंक़ेलाब बरपा किया था. इंक़ेलाब ज़िंदाबाद जैसा लाफ़ानी नारा इसी ज़बान में दिया गया. उर्दू शायरों-अदीबों और सहाफ़ियों नें अपनी जाने हुसूले आज़ादी के लिए क़ुर्बान की है. बाहदुर शाह ज़फ़र से लेकर हसरत मोहानी और मौलाना आज़ाद तक शायरी और तहरीरों का सिलसिला जारी रहा है. बाहदुर शाह ज़फ़र को मुल्क बदर की सज़ा मिली तो उन्होंने उर्दू में ही अपना दर्द बयान करते हुए कहा था; 

है कितना बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए यार मे. 

उर्दू के अज़ीम शायर और सहाफ़ी मौलवी मोहम्मद बाक़र को तो अंग्रेज़ो ने मुतालबए आज़ादी के लिए सरे आम गोली मार दी थी. मौलवी मोहम्मद बाक़र सहाफ़ी थे और अपने उर्दू अख़बार से तहरीके आज़ादी की तब्लीग़ और तशहीर कर रहे थे. तहरीके आज़ादी को पाए तकमील तक पंहुचाने के लिए ज़बाने उर्दू ने एक के बाद एक अपने जियाले वतन पर निछावर किए. भगत सिंह जैसे अज़ीम शहीद क़ैद में रहकर उर्दू में ही अपने पैग़ाम अपने साथियों को लिखकर भेजते थे, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी उर्दू से इश्क़ था, पटेल भी उर्दू से मुहब्बत करते थे.

पौने दो सौ बरस तवील तहरीके आज़ादी की दास्तान में उर्दू और उसकी औलादों की कहानी सुनहरे हुरूफ़ में दर्ज हैं. उर्दू अदीबों और सहाफ़ियों के सर क़लम होते रहे, लेकिन कटते सरों से बहते लहू को रौशनाई बनाकर उर्दू में इंक़ेलाब और आज़ादी की कहानी लिखने का सिलसला न रुका न थमा..बड़ी से बड़ी ताक़तों आफ़त के सामने न सर झुका न क़लम रुका न उर्दू के हौसले पस्त हुए..

उर्दू सहाफ़ियों अदीबों और शायरों की शहादत, सज़ा-ए- क़ैदो मशक़्क़त की दास्तान तूलो तवील है..उस दौर में उर्दू अख़बारात आज़ादी की जंग तो लड़ ही रहे थे. साथ ही अवाम को इस काम के लिए तैय्यार कर रहे थे. जंगे आज़ादी में उर्दू के किरदार को भला कैसे फ़रामोश किया जा सकता है. अकबर इलाहाबादी ने उसी जद्दोजेहद के दौरान ये शेर भी उर्दू में ही कहा था कि

खींचों न कमानों को, न तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो. 

लेकिन परेशानी ये है कि इन तारीख़ी हक़ीक़तों को बयान कौन करे ?  इस सच्चाई को नई नस्लों तक कौन पहुंचाए? आला ओहदों पर बैठे लोगों को इस इतिहास से कौन वाक़िफ़ कराए ? शिकवा बयान पर नहीं. शिकवा जानकारी न होने से है, अगर जानकारी होती तो उर्दू समझ में आती, उर्दू को ही हिंदुस्तान कहते हैं. हिंदुस्तान को ही उर्दू कहते हैं

जो ये हिन्दोस्ताँ नहीं होता
तो ये उर्दू ज़बाँ नहीं होती

 

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