Main Atal Hoon Movie Review: 'मैं अटल हूं' फिल्म पर भारी पड़ गए पंकज त्रिपाठी
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Main Atal Hoon Movie Review: 'मैं अटल हूं' फिल्म पर भारी पड़ गए पंकज त्रिपाठी

Pankaj Tripathi की फिल्म 'मैं अटल हूं' रिलीज हो गई है. फिल्म को सोशल मीडिया पर अच्छा रिस्पांस मिल रहा है. ये फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की बायोपिक है. फिल्म देखने से पहले जरूर पढ़िए रिव्यू.

पंकज त्रिपाठी फिल्म रिव्यू मैं अटल हूं

निर्देशक: रवि जाधव

स्टार कास्ट: पंकज त्रिपाठी, पीयूष मिश्रा, एकता कौल, दया शंकर पांडेय, प्रमोद पाठक, राजा रामशेष कुमार सेवक, पायल नायर आदि

स्टार रेटिंग: 3

कहां देख सकते हैं: थिएटर्स में

Main Atal Hoon Movie Review: फिल्म के निमार्ताओं ने फिल्म की रिलीज के लिए प्राण प्रतिष्ठा की तारीख देखी होगी कि इस माहौल में ये फिल्म भी भवसागर पार हो जाएगी. लेकिन वो भूल गए कि उनकी रिलीज की तारीख यानी 19 जनवरी वो तारीख है, जिस दिन इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं. हालांकि इस मूवी में केवल अटल ही अटल छाए हुए हैं, ना इंदिरा गांधी पर ना ही उनके किरदार पर ज्यादा फोकस किया गया है. ऐसे में चूंकि जो लोग हर हर घटना को जानते हैं, उनके लिए ये फिल्म महज घटनाओं का एक संकलन भर होगी, लेकिन जो अटलजी के बारे में इतना भी नहीं जानते, उनके लिए और संघ परिवार से जुड़े व उनके समर्थकों के लिए ये फिल्म काफी स्पेशल है. तमाम घटनाओं और किरदारों को इस मूवी में पिरोने के बाद एक जो व्यक्ति है, वो अटल बिहारी की तरह ही सब पर भारी पड़ा है, तो वो हैं पंकज त्रिपाठी. पूरी जान लगा दी, उन्होंने अपने प्रिय किरदार को परदे में जीने में.

पहले से ज्ञान होना काम आया

खुद पंकज त्रिपाठी ये बात बता चुके हैं कि वो छात्र जीवन में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रह चुके हैं. सो उनके लिए ये किरदार जीना आसान भी था. शाखाओं में क्या होता है, क्या प्रक्रिया होती है, संघ, जनसंघ और बीजेपी का इतिहास क्या है, और कौन कौन बड़े किरदार हैं, उसका पहले से ज्ञान होना भी उनके काम आया.

 

 

कई घटनाओं को दिखाया गया
ऐसे में जो संघ समर्थक हैं और खासतौर पर युवा हैं, उनको 142 मिनट में संघ ने कैसे राजनीतिक पक्ष को नानुकूर करते हुए समर्थन दिया और कैसे जनसंघ के शुरूआती नेताओं श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय की संदिग्ध मृत्यु हुई, गांधी हत्या के बाद कैसे अटलजी पर भी हमला हुआ. अटलजी ने कैसे बाद में आडवाणी जी के साथ मिलकर बीजेपी को कई बार सत्ता में पहुंचाया, ये सब इतने कम समय में जानना उनके लिए दिलचस्प होगा. लेकिन ये भी सही बात है कि इतनी ज्यादा घटनाएं यानी अटल जी के बचपन से लेकर कारगिल युद्ध तक समेटने में कई घटनाओं को विस्तार नहीं मिल पाया. जॉन अब्राहम की फिल्म ‘परमाणु’से अटलजी के शासन में हुए परमाणु परीक्षण का जो महत्व पता चलता है, इस मूवी से नहीं पता चलता. उसी तरह मधुर की ‘इंदु सरकार’ जो इमरजेंसी का काला सच दिखाती है, वो इसमें मिनटों में सिमट गया.

राजकुमारी से दिखाए गए रिश्ते

फिल्म के निर्देशक रवि जाधव नेशनल फिल्म अवॉर्ड विजेता निर्देशक हैं, उन्होंने जान भी वाकई में लगा दी है. अटलजी और राजकुमारी कौर के रिश्तों वाला हिस्सा तेजी से दौड़ती फिल्म में थोड़ा राहत देता है, उन्होंने पीयूष मिश्रा के जो उनके पिता के किरदार में हैं, को भी शुरुआती हिस्से में बखूबी इस्तेमाल किया है.

 

 

 वैसे भी ये आसान प्रोजेक्ट नहीं था, अभी अटलजी को गए छह साल भी पूरे नहीं हुए, सारे चैनल्स उनकी इतनी कहानियां चला चुके हैं कि लोगों को अभी तक याद हैं, कइयों ने तो नाटकीय रूपांतरण भी चलाया. आमतौर पर बायोपिक तभी आती हैं, जब लोग उन्हें भूल गए होते हैं, जैसे नई पीढ़ी सैम मानिक शॉ को भूल ही गई थी. तो इतनी जल्दी इसे बनाने का नुकसान होगा या देश में भगवामय माहौल का फायदा, ये वक्त तय करेगा.

माहौल तो बना दिया

लेकिन ये सच है फिल्म के शुरुआत में ही अटलजी के कई गरमागरम संवाद डालकर माहौल तो बना दिया गया है, जैसे आजादी से ठीक पहले का उनका संवाद- “सोने की चिड़िया पिंजरे से बाहर आने वाली है.. अंग्रेज कहीं उसके पंख काटकर ना चले जाएं”, या फिर नवाज शरीफ को ये कहना कि ‘’पाकिस्तान को नक्शे पर ढूंढते रह जाओगे’’.

हालांकि इतनी रिसर्च में कुछ गड़बड़ियां भी हुई हो सकती हैं, जिन पर सवाल उठेंगे, जैसे आडवाणीजी को भी नहीं पता था कि भारत पोखरन में परमाणु परीक्षण करने जा रहा है, सूत्रधार पीयूष मिश्रा ने रायबरेली चुनाव को बरेली चुनाव बोला, अटलजी ने ये संवाद इंदिरा को बोला कि अविवाहित हूं पर कुंवारा नहीं, ये बयान दरअसल, उन्होंने इंदिरा गांधी को नहीं बल्कि पत्रकारों को कहा था.

 

 

तंज कसने वाली कविताओं खली कमी
एडिटिंग, सिनेमेटोग्राफी बेहतरीन है, जिस तरह के गाने चाहिए थे, वैसे हैं फिल्म में. हालांकि एक कमी जरूर खली है कि आधी फिल्म में अटलजी का चेहरा परेशान सा नजर आता है, जितने खुशमिजाज और मारक वो होने चाहिए थे, खासतौर पर तंज कसने वाली कविताओं का और इस्तेमाल होना चाहिए था, तो मजा आ जाता. जैसे इंदिरा को इंडिया कहने पर उन्होंने जेल से ही डीके बरूआ पर ‘चमचों के सरताज’कविता लिखी थी. इसी तरह संजय गांधी पर व्यंग्यात्मक ‘छोटे सरकार’कविता लिखी थी.

हालांकि ये भी थोड़ा अजीब लगा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय जैसे दिग्गजों के किरदार अक्सर खलनायकी रोल करने वाले दो कलाकारों को दे दिए गए. शिव कुमार और आडवाणी जी के किरदारों की कम लम्बाई भी जमती नहीं. जो भी हो, ये फिल्म एक बड़ा प्रयास है, फिल्म के निर्माता भानुशाली ब्रदर्स और संदीप सिंह भी ये बखूबी जानते होंगे कि फिल्म 100 करोड़ के क्लब में तीन दिन या हफ्ते भर में जाने वाली फिल्मों में से नहीं, लेकिन ये तय है कि थिएटर्स के बाद जब भी ओटीटी पर आएगी, वहां काफी पसंद की जाएगी.    

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