मुसलमानों के बीच ही हुई थी कर्बला की लड़ाई; जानें- क्यों नहीं दी जाती है मुहर्रम की बधाई ?
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मुसलमानों के बीच ही हुई थी कर्बला की लड़ाई; जानें- क्यों नहीं दी जाती है मुहर्रम की बधाई ?

Muharram 2023 Special: इस्लामी हिजरी कैलेंडर के मुताबिक, साल के पहले माह को मुहर्रम कहते हैं. इसी माह में कर्बला की जंग हुई थी, जिसमें हजरत हुसैन और उनके कबीले के लोग युद्ध में शहीद हुए थे.. और इसी जंग में छिपा है इस्लाम में शिया और सुन्नी दो मसलकों के पैदा होने का राज... 

अलामती तस्वीर

स्लामी यानी हिजरी कैलेंडर के मुताबिक मुहर्रम साल के पहले महीने का नाम है. यह अरबी भाषा का एक शब्द है, जिसका मतलब होता है- सही और गलत में भेद करना, न्याय और अन्याय का फर्क या हराम और हलाल में फर्क करना. इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक मुहर्रम रमजान के बाद दूसरा सबसे ज्यादा पवित्र महीना होता है. इस महीने का जिक्र कुरान और हदीसों में भी किया गया है. इसके साथ ही इस महीने में इस्लाम की कई अन्य ऐतिहासिक घटनाएं भी हुई थी, जिस वजह से मुहर्रम के महीने का पूरे इस्लामी दुनिया में बेहद खास अहमियत है. 

खास बात यह भी है कि साल का पहला महीना होते हुए भी दुनियाभर के मुसलमान मुहर्रम को साल के पहले माह की तरह सेलिब्रेट नहीं करते हैं, और न ही किसी तरह की खुशी मनाते हैं.
साल का पहला महीना होने के बावजूद इसे सेलिब्रेट न करने के पीछे की सबसे बड़ी वजह कर्बला का युद्ध है. कर्बला वर्तमान इराक में एक जगह का नाम है, जहां पर 10 अक्टूबर 680 ईसवी और अरबी तारीख के मुताबिक 10 मुहर्रम 61 हिजरी में एक युद्ध हुआ था. यह युद्ध भी किसी दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ नहीं था बल्कि दूसरा पक्ष भी मुसलमान था. इस युद्ध में इस्लामी के आखिरी पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नाती सहित उनके पूरे कबीले के लोग शहीद हो गए थे.

युद्ध की पृष्ठिभूमि

क्यों हुई थी कर्बला की जंग 
इस्लाम के तीसरे खलीफा हजरत उसमान की 656 में हत्या के बाद मदीने के लोगों ने पैगंबर मुहम्मद साहब के दामाद हजरत अली को नया और चौथा खलीफा घोषित कर दिया. लेकिन इस बात को हजरत अली की सास और पैगंबर मोहम्मद साहब की बेवा हजरत आईशा सहित उनके समर्थकों ने स्वीकार नहीं किया. उन्होंने मांग रखी की खलीफा को नॉमिनेट न कर संवैधानिक तरीके और आम राय से उनका चुनाव किया जाए, क्योंकि इससे पहले के खलीफा इसी विधि से चुने गए थे.

बाद के दिनों में 661 में चौथे खलीफा हजरत अली की हत्या के बाद उनके बड़े बेटे हसन को उनका उत्तराधिकारी माना गया, लेकिन हसन ने सत्ता के लिए युद्ध और खून-खराबा से बचने के लिए इलाके के सरदार मुआविया से एक संधि की और इस शर्त पर उसे सत्ता सौंप दी कि वह अपनी सलतनत नहीं कायम करेगा. 670 में हसन की मौत के बाद उनके छोटे भाई हुसैन को कूफा के लोगों ने हसन का वारिस और अपना शासक मान लिया, लेकिन हुसैन हसन द्वारा मुआविया से की गई संधि से बंधे हुए थे. 

676 में मुआविया ने अपने बेटे यजीद को अपना उतराधिकारी घोषित कर दिया. यह हसन से की गई संधि का सीधा उल्लंघन था. इसलिए हुसैन और उनके समर्थकों ने इसका खुलकर विरोध किया. 680 ई. में अपने पिता मुआविया की मृत्यु के बाद, यज़ीद शासक बन गया. यजीद का गैरीसन और कूफा तक शासन स्थापित हो गया. इस बात से दुखी वहां की अवाम ने हुसैन से उमय्यद शासक यजीद को सत्ता से उखाड़ फेंकने की गुजारिश की, जबकि यजीद ने सत्ता संभालते ही हुसैन और अन्य असंतुष्टों से समर्थन की मांग की और उन्हें अपनी अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजा. हुसैन ने यजीद का ये प्रस्ताव ठुकरा दिया. इस तरह दोनों के बीच दुश्मनी की खाई और गहरी हो गई.  

9 सितंबर 680 को बकरीद यानी हज के एक दिन पहले हुसैन जब कूफा से अपने परिवार सहित 70 आदमियों के साथ मदीना जा रहे थे तभी उनके कारवां को कुफ़ा से कुछ दूरी पर यजीद की लगभग 1,000 की संख्या वाली मजबूत सेना ने रोक लिया. हुसैन के काफिले को सुरक्षित रास्ता देने की यजीद के गवर्नर उबैद अल्लाह इब्न ज़ियाद से की गई वार्ता विफल हो गई.

हुसैन ने उसके अनैतिक शर्तों को मानने से इंकार कर दिया. एक माह तक हुसैन और उनके लोग निर्जन रेगिस्तान में बिना खाना-पानी के तंबू गाड़ कर रहने को मजबूर हो गए. यजीद ने वहां 4 हजार और सेना भेज दी. 10 अक्टूबर यानी मुहर्रम की 10वीं तारीख की रात में यजीद की सेना और हुसैन के लोगों के बीच भीषण लड़ाई शुरू हो गई. इस युद्ध में हुसैन सहित उनके परिवार और कबीले के सभी लोग वीरगति को प्राप्त हो गए. इसमें बूढ़े, बच्चे, औरत और मर्द सभी शामिल थे. परिवार के कुछ जिंदा लोगों को यजीद ने बंदी बना लिया. 

इस दिन को इस्लामी इतिहास का काला दिन माना जाता है. दुनिया भर के मुसलमान इस दिन को शोक के दिन के तौर पर याद करते हैं. 
 

कर्बला के जंग के पहले से ही बंट गए थे शिया और सुन्नी 
इस तरह कर्बला की लड़ाई से पहले हजरत अली को खिलाफा मनोनित करने के समय से ही मुस्लिम समुदाय दो राजनीतिक गुटों में बंट गया था, जिसमें हजरत अली और उनके बेटे हुसैन के समर्थक शिया कहलाने लगे और शेष मुसलमान सुन्नी. कर्बला की इस लड़ाई में हजरत हुसैन की शहादत के बाद से ही अली के समर्थकों ने खुद को एक अलग पहचान के साथ एक संप्रदाय में बदल दिया. कर्बला के इस युद्ध का शिया इतिहास, परंपरा और धर्मशास्त्र में बहुत बड़ा स्थान है. शिया साहित्य में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है. शियाओं के लिए, हुसैन की पीड़ा और शहादत गलत के खिलाफ सही और अन्याय और झूठ के खिलाफ न्याय और सच्चाई के संघर्ष में बलिदान का प्रतीक बन गई. कर्बला की जंग को शिया और सुन्नी मुसलमान दोनों ही एक ऐतिहासिक त्रासदी मानते हैं, लेकिन शिया इस त्रासदी से गहराई तक टूट गए. 

शिया मुसलमान इस दिन मनाते हैं मातम
मुर्हरम महीने के दसवीं तारीख को कर्बला की जंग में हजरत हुसैन और उनके अनुयायी शहीद हुए थे. इसे आशूरा के दिन के रूप में याद किया जाता है. आशूरा का दिन इस्लाम में बलिदान, करुणा और अन्याय के खिलाफ खड़े होने के मूल्यों की याद दिलाता है. शिया और सुन्नी दोनों मुसलमान आशूरा के दिन रोजा रखते हैं. गरीबों को दान देते हैं. कुछ लोग हजरत इमाम हुसैन के प्रति अपना प्रेम और श्रद्धा जताने के लिए उनके मजार के रेपलिका के तौर पर ताजिया बनाते हैं. इस मौके पर शिया मुसलमान बहुत ज्यादा शोक मनाते हैं. वह सार्वजनिक जुलूस निकालते हैं. धार्मिक सभाएँ आयोजित करते हैं. इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदान और साहस पर चर्चा कर विलाप करते हैं.
 

सुन्नी क्यों नहीं मनाते हैं मातम ? 
मुहर्रम में कर्बला की जंग में हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर शिया और सुन्नी सभी मुसलमान दुखी होते हैं. हालांकि, सुन्नी मुसलमानों के उलेमा कर्बला की जंग में शहीद होने वालों पर मातम नहीं मनाते हैं और लोगों से ऐसा न करने की अपील करते हैं. उनका मानना है कि इस्लाम में किसी की मौत पर सिर्फ तीन दिन गम मनाने का हुक्म है, और मृत्यु पर विलाप करना गैर-इस्लामी है. वह सत्य के लिए शहीद होने को फख्र मानते हैं. सुन्नी धर्म गुरु इस दिन ताजिया बनाना, जुलूस निकालना, मातम मनाना और विशेष पकवान पकाने को भी सही नहीं मानते हैं. 
कुतुब रब्बानी शेख अब्दुल कादिर जिलानी कहते हैं, “अगर इमाम हुसैन (र.) के शहादत के दिन को दुःख और शोक के दिन के रूप में मनाया जाता है, तो इससे ज्यादा माकूल होता कि पैगंबर (स.) की वफात को मातम के रूप में मनाया जाता. उसी दिन हजरत अबू बक्र सिद्दीकी (र.) की भी मौत हुई थी. ग़नियाह अल-तलबीन पृष्ठ 38, सीः2) 
 

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