बांग्लादेश हिंसा: संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान के जिस घर को गिराया गया, उसका इतिहास है गौरवशाली, पढ़ें- भारतीय जवान की साहस भरी कहानी

Bangladesh Violence: धानमंडी-32 इमारत न केवल बांग्लादेश के इतिहास में महत्वपूर्ण बनी हुई है, बल्कि एक भारतीय सैनिक द्वारा किए गए चुनौतीपूर्ण बचाव अभियान के लिए भी जानी जाती है.

Written by - Nitin Arora | Last Updated : Feb 7, 2025, 03:26 PM IST
बांग्लादेश हिंसा: संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान के जिस घर को गिराया गया, उसका इतिहास है गौरवशाली, पढ़ें- भारतीय जवान की साहस भरी कहानी

Sheikh Mujbur Rahman Dhanmondi-32: ढाका के एक आलीशान इलाके में बसा धानमंडी-32 बांग्लादेश के इतिहास के दो महत्वपूर्ण क्षणों का गवाह रहा है. बांग्लादेश में हिंसा फिर एक बाद जारी है और 5 फरवरी तक भीड़ द्वारा बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजबुर रहमान के प्रतिष्ठित आवास को गिरा दिया. सोशल मीडिया पर 'बुलडोजर जुलूस' के आह्वान के तहत तोड़फोड़ की गई. दरअसल, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रहमान की बेटी और अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सरकार के खिलाफ भाषण दिया थाय

हसीना पिछले साल अगस्त में अपने पद से हटने के बाद से भारत में रह रही हैं. वह एक ऑडियो संबोधन में तोड़फोड़ के बारे में बात करते हुए रोती हुई सुनाई दीं. उन्होंने अपने संबोधन में कहा, 'एक संरचना को मिटाया जा सकता है, लेकिन इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता.'

बात ये कि भारत भी इस इमारत के इतिहास का हिस्सा रहा है. ऐसे में भारत ने भी इस कृत्य की निंदा की. साथ ही कहा कि वह इमारत बांग्लादेश के लोगों के 'वीर प्रतिरोध का प्रतीक' था.

भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा, 'जो लोग स्वतंत्रता संग्राम को महत्व देते हैं, जिसने बांग्ला पहचान और गौरव दिलाया, वे बांग्लादेश की राष्ट्रीय चेतना के लिए निवास के महत्व से अवगत हैं.'

यह इमारत न केवल बांग्लादेश के इतिहास में महत्वपूर्ण है, बल्कि एक भारतीय सैनिक द्वारा किए गए चुनौतीपूर्ण बचाव अभियान का भी केंद्र है, जो पाकिस्तानी गार्डों की बार-बार चेतावनी के बावजूद अकेले और निहत्थे अंदर गया था. आज हम आपको धानमंडी-32 निवास से जुड़ी दो कहानियां बताएंगे.

1971 का प्रकरण
बांग्लादेश को 1971 में स्वतंत्रता मिली, जब पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने अपने हथियार डाल दिए. 16 दिसंबर को, पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने ढाका में आत्मसमर्पण दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए.

हालांकि, कुछ किलोमीटर दूर, धानमंडी में रहमान की पत्नी और तीन बच्चे, जिनमें हसीना भी शामिल थीं वे अभी भी बंदी थे क्योंकि पाकिस्तानी सैनिक इस बात से अनजान थे कि उनके सैनिकों ने अपने हथियार डाल दिए हैं और वास्तव में, बांग्लादेश अब स्वतंत्र है.

उस समय रहमान पाकिस्तान में कैद थे. जब अगली सुबह भारतीय सैनिकों को इसकी सूचना मिली, तो चार सैनिकों की टुकड़ी बंधकों को छुड़ाने के लिए पहुंची. लेकिन एक खतरा था. ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तानी सैनिकों को आदेश दिया गया था कि अगर हार का खतरा हो तो वे सभी बंदियों को मार डालें.

टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे मेजर अशोक तारा ने अपने लोगों को पीछे रहने को कहा और गार्डों के पास जाने का खतरा अपने ऊपर ले लिया.

सैनिकों ने भारतीय अधिकारी पर अपनी बंदूकें तानते हुए चेतावनी दी, 'एक और कदम और हम तुम्हें गोली मार देंगे.' लेकिन वे शांत रहे और हिंदी और पंजाबी में उनसे बात करने की कोशिश की.

बाद में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, 'उन्हें नहीं पता था कि पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया है. मैंने उनसे कहा कि अगर ऐसा नहीं होता तो एक निहत्था भारतीय अधिकारी उनके सामने खड़ा नहीं होता.'

मेजर तारा के यह विश्वास दिलाने के बाद कि वे सुरक्षित अपने परिवारों के पास वापस लौट आएंगे, सैनिकों ने आखिरकार उन्हें अंदर जाने दिया. बाकी इतिहास है.

भारतीय अधिकारी को 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री हसीना द्वारा 'बांग्लादेश के मित्र' पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

1975 का प्रकरण
धनमंडी घर 1975 में फिर से दुनियाभर के समाचारों में आया. 15 अगस्त की सुबह बांग्लादेशी सेना के जवानों के एक समूह ने घर में प्रवेश किया और उस समय वहां मौजूद सभी लोगों की हत्या कर दी. इसमें रहमान और उनके परिवार के 18 सदस्य शामिल थे.

इस नरसंहार ने बांग्लादेश में सनसनी फैला दी और देश राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में डूब गया. सेना ने कमान संभाली और जनरल जियाउर रहमान राष्ट्रपति बने.

इस नरसंहार के दौरान हसीना और उनकी बहन शेख रेहाना यूरोप में थीं और इसलिए बच गईं. दिल्ली लौटने पर उन्हें हत्याओं के बारे में पता चला और उनके पति, बच्चों और रेहाना सहित उनके परिवार को भारत ने शरण दी. उन्होंने दिल्ली में अपने स्थान को 'गुप्त' बताया था.

1981 में बांग्लादेश लौटने पर हसीना ने इस मकान को नीलामी से बचाया और इसे बंगबंधु मेमोरियल ट्रस्ट को सौंप दिया, जिसने बाद में इस भवन को बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान मेमोरियल संग्रहालय में बदल दिया.

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