Himachal Pradesh News: शिमला के रामपुर में चल रहे लवी मेला में ऊनी कपड़े, शॉल, मफलर समेत कई ऊनी कपड़े आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं, लेकिन सिंथेटिक फाइबर की कीमतों के चलते इनकी खरीददारी ज्यादा नहीं हो पा रही है.
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बिशेषर नेगी/रामपुर: शिमला जिला के रामपुर में चल रहे अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में ऊनी वस्त्र, शाल पट्टू, दौडु, मफलर आदि आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं. इससे हजारों साल पुरानी भारतीय कला और परंपरा को आगंतुकों को नजदीक से निहारने का अवसर भी मिल रहा है, लेकिन बारीक डिजाइनों को उकेर कर बनाए गए यह विशुद्ध ऊनी वस्त्र सिंथेटिक फाइबर की कीमत के आगे टिक नहीं पा रहे. ऐसे में हजारों साल पुराने हथकरघा उद्योग पर सिंथेटिक फाइबर एवं मशीन मेड संकट खड़ा करने लगा है.
हजारों साल पुराना पारंपरिक हथकरघा व्यवसाय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के साथ-साथ अपनी संस्कृति और परंपरा को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. भारतीय बुनकर जिस जुनून और मेहनत के साथ अपनी कला से खूबसूरत बारीक डिजाइन उकेर कर उत्पाद तैयार करते हैं, निसंदेह भारत देश के हैंडलूम को सबसे आकर्षक दर्शाने का काम भी करते हैं.
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ऐसे में निश्चित तौर पर अपनी परंपरा संस्कृति और सभ्यता को बेहद करीब से महसूस करने का भी अवसर मिलता है, लेकिन भारत में आज प्राकृतिक फाइबर और सिंथेटिक फाइबर के महत्व एवं गुणवत्ता की समझ आम जन में ना होने से लोगों का रुझान सस्ते और आसानी से उपलब्ध होने वाले सिंथेटिक फाइबर की ओर बढ़ रहा है.
दूसरा ऊनी वस्त्र सिंथेटिक फाइबर से कई गुना महंगे भी पढ़ते हैं, क्योंकि ऊंची पहाड़ियों की चरागाहों पर जड़ी बूटियां खाने वाली भेड़ों से ऊन निकालने से लेकर उन्हें वस्त्र की शक्ल में लाने में कठिन परिश्रम और अधिक लागत आती है, जबकि मशीन मेड सस्ता और कम लागत में आसानी से हर जगह उपलब्ध होता है, लेकिन निरोग एवं स्वस्थ जीवन के लिए जैविक उत्पादों एवं वस्त्र की पहचान जरूरी हो गया है.
किन्नौर ऊर्नी गांव की रहने वाली प्रेम देवी ने बताया कि हर साल लवी मेले में ऊनी वस्त्र जिसमें पट्टी, पट्टू, डिजाइदार मफलर स्टॉल आदि लेकर आते हैं. ऑर्गेनिक और हैंड मेड होने से इन्हें बनाने में अधिक मेहनत के साथ-साथ समय भी अधिक लगता है. इसका यह लाभ है कि यह ऑर्गेनिक होने के कारण निरोग और गर्म रहता है, लेकिन बाजार में सिंथेटिक और नेचुरल की पहचान न रखने के कारण लोग इसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं.
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किन्नौर बरुआ गांव के रहने वाले श्यामानंद ने बताया उन्होंने भेड़ें पाल रखी हैं. उनकी भेड़ें ऊंचाई वाले स्थान के चरागाहों में रहती हैं. उनसे ऊन काट कर वे ऊनी कंबल, योगा मैट और अन्य सामान तैयार करते हैं. लोगों को नकली असली का भेद नहीं मालूम.
किन्नौर सांगला के रहने वाले संदीप नेगी ने बताया कि वे पिछले 15 वर्षों से अंतरराष्ट्रीय लवी मेला में अपने हाथों से बने वस्त्र, जिनमें कंबल, दौडू, मफलर, टोपी, पट्टी, पट्टू आदि लेकर आते हैं, लेकिन अब बाजार में सिंथेटिक मशीन मेड ज्यादा आने से उनको नुकसान हो रहा है, क्योंकि मशीन मेड सस्ता पड़ता है. वे चाहते है कि हथकरघा उद्योग को बढ़ावा दें.
हथकरघा उद्योग से जुड़ी यशवंती नेगी ने बताया कि वह लवी मेला में हाथों से उकेर कर बनाए गए शॉल, स्टॉल, पट्टू ,पट्टी, मफलर आदि लेकर आते हैं, लेकिन आजकल हमारा काम हो गया है, क्योंकि सिंथेटिक मशीन में बाहर से लाई गई आइटम ज्यादा बिकने लगी हैं. यह देखने में सुंदर लगते हैं और कीमत भी काफी कम रहती है. हमारे उत्पाद हैंडमेड होने के कारण महंगे होते हैं. इस पर सरकार को भी ध्यान देना चाहिए. बहरहाल भारतीय पुरानी कला को संरक्षित रखने के लिए हथकरघा उद्योगों को प्रोत्साहित करना समय की आवश्यकता बन गया है ताकि भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परंपरा संरक्षित रहने के साथ-साथ ग्रामीण पारंपरिक व्यवसाय को भी प्रोत्साहन मिल सके.
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