नई दिल्ली. पिछले 19 दिनों के बाद भी किसान आंदोलन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है. किसानों को कोई जल्दी नहीं. वो सरकार को पूरा मौका देने के पक्ष में हैं बस फैसला उन्हें मन मुताबिक चाहिए. किसान कहते हैं कृषि बिलों की वापसी से कम कुछ भी मंजूर नहीं. राजनीतिक फिरकेबाज़ी को छोड़ दें तो लोग भी देश के किसानों प्रति नरम ही हैं. 'साउंड' कुछ ऐसा है कि घर का मामला है मिल कर सुलझा लो. मुद्दा सिर्फ मुकम्मिल हल नहीं सम्मानजनक हल का भी है. एक-एक कदम चलकर समाधान तक पहुंचना ज़रूरी है. पर हाल के दिनों में कुछ ऐसी घटनाएं भी इसी किसान आंदोलन के कुछ हिस्सों में दिखी हैं जिसे देख कर देश और किसान दोनों को सचेत होने ज़रूरी है.
किसानों के खेत में अर्बन नक्सल की ज़हरीली पौध
किसानों के आंदोलन में देशद्रोही और दिल्ली दंगों के आरापी शरजील इमाम, उमर खालिद और भीमा कोरेगांव के अर्बन नक्सलियों के पोस्टर और उनकी रिहाई के नारे. ये पिक्चर देश के लिए नहीं विदेश के लिए तैयार की गई है. किसानों की भीड़ को बैकग्राउंड में दिखा कर विदेश की ज़मीन पर भारत को बदनाम करने की ये वो साजिश है जिसकी स्क्रिप्ट दिल्ली दंगा रचकर उमर खालिद ने लिखी थी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अर्बन नक्सलियों के रूप में देश के भीतर प्रो-इस्लामिक और एंटी नेशनल ब्रिगेड पूरी तरह एक्टिव है. जिसका एकमात्र मकसद है चीन के माओवादी एजेंडे पर काम करना. ताकि देश की साख विश्व में गिरे, भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पड़े और चीन के बड़े प्रतिस्पर्धी के तौर पर भारत कमज़ोर हो.
दरअसल देखें तो कम्युनिज्म और उम्माह या उम्मत के कंसेप्ट में अंतर बहुत ज्यादा नहीं है। एक चीज़ जो दोनों में घोर रूप से उभयनिष्ठ है वो है राष्ट्रवाद का विरोध. जिस तरह से इस्लाम में राष्ट्र की सीमाओं से बड़ी उम्मा यानि इस्लामिक जगत के प्रति निष्ठा है ठीक वैसे ही कम्युनिज्म में राष्ट्र से ज्यादा विचारधारा और कम्यून के प्रति निष्ठा है. यही वजह है कि इस्लामिक कट्टरपंथ और वामपंथ दोनों ही राष्ट्रवाद के खिलाफ एक साथ, एक तरफ खड़े होते हैं.
1962 की जंग में CPM का जवानों को खून देने से इनकार
देश के किसान और जवान को लेकर 'लाल' वामपंथी ब्रिगेड की निष्ठा और चिंता समझनी हो तो आज़ादी की लड़ाई से लेकर 1962 में भारत-चीन के युद्ध तक का इतिहास पढ़ लीजिए. वामपंथियों की मौकापरस्ती ने किसी को नहीं छोड़ा, अपनी राजनीति के लिए तुमने कट्टरपंथी जिन्ना को खड़ा किया , सुभाष चंद्र बोस को धोखा दिया, महात्मा गांधी तक से फरेब किया. जब भी मौका मिला, जहां मौका मिला, जैसे भी मौका मिला, देश के वामपंथियों ने अपने सियासी नफे के लिए खून बहाने से कभी गुरेज़ नहीं किया, हां खुद खून देने से ज़रूर परहेज़ किया...
1962 की जंग में जब हिंदुस्तान के वीर जवान माओ की लाल सेना से दो-दो हाथ कर रही थी. तब देश के इन वामपंथियों का हाथ अपने आका माओ ज़ेडॉन्ग के साथ था. हुआ ये था कि भारत-चीन जंग में हमारे सैकड़ों जवान घायल हुए थे तब केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंद ने CPM पोलित ब्यूरो को जवानों की मदद के लिए ब्लड डोनेशन कैंप का सुझाव दिया था. वी.एस. अच्युतानंद CPM पोलित ब्यूरो के सदस्य थे. लेकिन अच्युतानंद के सुझाव से CPM इतना चिढ़ गई कि उन्हें पोलित ब्यूरो से ही हटा दिया गया. चीन के गोली के शिकार देश के घायल जवानों को कम्युनिस्ट पार्टी ने ये कहते हुए खून देने से मना कर दिया था कि जवानों को खून देना पार्टी विरोधी गतिविधि है.
जवान विरोधी कम्यूनिस्ट पार्टी किसान समर्थक कैसे?
जरा सोचिए.. जो पार्टी देश की रक्षा में खड़े जवानों की रक्षा को पार्टी विरोधी मानती है. वो किसानों की मददगार कैसे हो सकती है? तो लड़ाई असली किसान और नकली किसान की भी है. असली किसान शांति के साथ सड़क किनारे डेरा-डंडा डालकर बैठा है और रक्त क्रांति को उतारू वामपंथी माहौल बिगाड़ने में लगे हैं. ज़रा किसानों के नाम पर जमा ये वामपंथी बहुरूपिए वो हैं जिन्होंने 2007 में पश्चिम बंगाल के सिंगूर में किसानों की ज़मीनें हड़पीं थीं, और विरोध करने पर किसानों पर लाठी और गोलियां तक चलवाईं थीं
इस्लामिक कट्टरपंथ, वामपंथ क्यों एक जैसे ?
दरअसल शाहीन बाग, दिल्ली दंगा और शरजील-उमर के टुकड़े गैंग को बचाने के लिए वामपंथी किसानों के बीच पहुंचे हैं. किसानों के आंदोलन को वामपंथियों के शातिर नेताओं ने एक मौके तौर पर लिया है. ताकि राष्ट्रद्रोहियों के पाप पर पर्दा डाल सकें. नक्सली हों या इस्लामिक कट्टरपंथी दोनों की निगाह में राष्ट्रवादी सरकार चढ़ी हुई है. एक चीन के माओवाद का अनुग्रही है दूसरा बगदादी, एर्दोगान और इमरान में अपना हितैषी खोजता है. वामपंथी ब्रिगेड की किसानों के बीच घुसपैठ भी दरअसल उसी तर्ज़ पर है. वामपंथ को अपनी राजनीतिक ज़मीन तलाशने के लिए ज़रूरत दोनों की है एर्दोगान-इमरान की इस्लामिक कट्टरपंथी लाइन और चीन का फंड. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर दिल्ली दंगे से लेकर शाहीन बाग तक के पीछे पीएफआई-तुर्की-पाकिस्तान और चीन का हाथ होने की बात सामने आई हो.
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किसानों को रहना होगा चौंकन्ना
किसानों का आंदोलन इससे अलग है. पर उन्हें चौकन्ना रहने की ज़रूरत है. क्योंकि इस्लामिक चरमपंथी और अर्बन नक्सली न देश के हैं न समाज के एक उम्मा के खयाल में गाफिल है दूसरा मार्क्स-माओ खूनी क्रांति में डूबा है.
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