नई दिल्ली. पूत के पांव पालने में वाली कहावत आम कहावत नहीं है क्योंकि यह बहुत बिरले लोगों पर ही सार्थक होती है. स्वामी विवेकानन्द का बाल्यकाल हो या स्कूली जीवन या फिर उनका ऊर्जावान यौवन अथवा उनका शिकागो प्रवास - उनके जीवन के कैनवास में अद्भुत रंग बिखरे हुए हैं.
रामायण मंडली को देते थे शिक्षा
उस जमाने में साधुओं की मंडली हुआ करती थी जो रामायण गाकर मिक्षा मांगती थी. जब इस तरह की कोई मंडली नरेन के द्वार पर पहुंचती तो वे ध्यान से उनका गायन सुनते और जब उन्हें लगता कि गायन में अशुद्धि है तो वे साधुओं को टोक देते. इतना ही नहीं वे ये भी बताते कि इसका सही पाठ क्या है. घर आए साधु इतने नन्हें बालक के इस चमत्कारिक गुण को देखकर दंग रह जाते.
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प्रथम स्कूली घटना
1871 में नरेन जब 8 साल के हुए तो उनका दाखिला पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन में करवाया गया. स्कूल में वे पढ़ाई में तो अव्वल रहते ही साथ ही खेल कूद की प्रतियोगिताओं में भी हमेशा फर्स्ट आते. इसी स्कूल में एक अजीब घटना घटी. हुआ ये कि एक टीचर जब क्लास में पढ़ा रहे थे नरेन उसी दौरान कुछ बच्चों से बातचीत कर रहे थे. गुस्से में आगबबूला हुए टीचर ने बच्चों से पूछा कि बताओ मैंने अभी क्या पढ़ाया है. कोई बच्चा जवाब नहीं दे पाया. लेकिन टीचर ने जब नरेन से पूछा तो उन्होंने हू-ब-हू सारी बातें बता दी. हैरान परेशान टीचर ने पूछा कि तुम भी तो बात कर रहे थे लेकिन तुमने कैसे बता दिया. नरेन ने कहा कि मैं दोस्तों से बात भी कर रहा था और उसी समय आपकी बातें भी सुन रहा था. 8 साल का बालक सहज भाव से ये बात कह गया लेकिन अनुभवी टीचर के मन में तो जैसे बिजली कौंध गई. क्या ऐसा हो सकता है?
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द्वितीय विचित्र घटना
इसी स्कूल में एक और अजीबो-गरीब घटना घटी. स्कूल का एक सख्त और कड़क टीचर एक छात्र को बेदर्दी से पीट रहा था. बालक नरेन को ये अच्छा नहीं लगा और वे टीचर की तरफ देखकर व्यंग्य भाव से हंसने लगे. वो टीचर और तमतमा गया और नरेन को पीटना शुरू कर दिया. टीचर ने नरेन को पीटते हुए कहा कि वादा करो कि तुम आगे से मेरे ऊपर हंसोगे नहीं. लेकिन नरेन ने ना तो सॉरी बोला और ना ही कोई वादा किया. गुस्से में टीचर ने कान खींचकर नरेन को उठाने की कोशिश की, जिससे उनके कान से खून निकलने लगा. हंगामा सुनकर स्वयं ईश्वरचंद विद्यासागर क्लासरूम में पहुंच गए और पूछा कि क्या हुआ है. नरेन ने अपना बस्ता समेटा और कहा कि आज के बाद मैं कभी इस स्कूल में नहीं आऊंगा.
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स्वयं विद्यासागर ने मनाया
ईश्वरचंद विद्यासागर खुद एक सिद्ध महात्मा थे. नरेन के दैवीय गुणों की पहचान उन्हें थी. उन्हें लगा कि ऐसे बालक का स्कूल से नाराज होकर जाना यानी स्वयं सरस्वती का रूठ जाना. वे नरेन के साथ आत्मीयता दिखाते हुए अपने ऑफिस में ले गए और उन्हें उचित कार्रवाई का आश्वासन दिया. नरेन मान गए और अगले दिन वक्त पर स्कूल पहुंच गए.
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