Vaccine Controversy: बीमारी पर डॉक्टर का पर्चा या मुल्ला का फतवा?

मुल्लाओं के मेडिकल साइंस के इन व्याख्यानों को सुनकर सिर पीट लेंगे. माथा भन्ना जाएगा कि ऐसे जाहिल अपनी कौम को वाकई तरक्की की राह पर ले जाना चाहते हैं या जाहिलपने के अंधेरे में? अगर तो क्यों? इस खास रिपोर्ट में समझिए पूरा माजरा..

Written by - Rakesh Pathak | Last Updated : Dec 25, 2020, 02:06 AM IST
  • कोरोना की वैक्सीन हलाल है या हराम?
  • कोरोना वैक्सीन में 'पोर्क जिलेटिन' का सच
Vaccine Controversy: बीमारी पर डॉक्टर का पर्चा या मुल्ला का फतवा?

नई दिल्ली: कोरोना वैक्सीन को लेकर एक अफवाह बहुत तेजी से उड़ रही है आजकल वो ये कि कोरोना वैक्सीन में 'पोर्क जिलेटिन' है. पोर्क इस्लाम में हराम यानि अपवित्र माना गया है लिहाजा कट्टरपंथी अब इस नजरिए ये सवाल उठा रहे हैं कि कोरोना की वैक्सीन हलाल या हराम है? लेकिन सवाल ये है कि क्या दवा या वैक्सीन को भी धर्म के नज़रिए से देखा जाएगा?

देश कोरोना से जंग में वैक्सिनेशन प्रोग्राम शुरु होने का इंतज़ार कर रहा है और इधर इस्लामिक कट्टरपंथियों ने वैक्सीन के हराम-हलाल होने के मुद्दे पर बहस छेड़ दी है. चंद मुट्ठी भर लोग जो खुद को इस्लामिक जमात का ठेकेदार करार देते हैं. अब वो ताल ठोक कर अपने समुदाय से कह रहे हैं कि किसी भी सूरत में वैक्सीन न ली जाए, जब तक कि मौलाना वैक्सीन में पोर्क होने की जांच न कर लें.

'इस्लामिक कट्टरपंथी' समझा रहे 'मेडिकल साइंस'

दुनिया भर को वैक्सीन का इंतजार है, और भारत में बहस छेड़ी जा रही है कि वैक्सीन शरियत के हिसाब से है या नहीं?  मुंबई की रज़ा एकेडमी और मुसलमानों की बड़ी संस्था ऑल इंडिया जमीयत मुसलमीन ने कहा है कि जो वैक्सीन शरियत के हिसाब से हो, भारत के मुसलमान वही वैक्सीन लगवाएं और मुसलमानों को वैक्सीन लगवाते वक्त हलाल का ध्यान ज़रूर रखना चाहिए. मतलब ये कि अगर उसमें पोर्क जिलेटिन है तो ऐसे वैक्सीन को हराम मानते हुए उसे लगाने से मान किया जाए. रज़ा एकेडमी का दावा है कि चीन सुअर के अंश से वैक्सीन बना रहा है, इसलिए ऐसी वैक्सीन लगवाना शरियत के ख़िलाफ़ है, मुसलमान पूरी तरह जांच पड़ताल करें, कि वैक्सीन बनाने में किन चीजों का इस्तेमाल हुआ है और मुफ्तियों के फतवे के बाद ही वैक्सीन लगवाएं.

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हर मुद्दे को धर्म से जोड़ना कितना सही?

ज़ी हिंदुस्तान ने इस सवाल को लेकर मुफ्ती शामून कासमी से खास बातचीत की, हमने मुफ्ती साहब से सवाल पूछा कि क्या अब मुसलमानों को वैक्सीन के लिए भी फतवा लेना होगा? मुफ्ती शामून ने ऐसे किसी भी कदम या फतवे का तीखा विरोध किया. उन्होंने कहा कि, 'वैक्सीन के हराम या हलाल होने पर फतवा देना इस्लाम के दायरे से बाहर है.' वैसे भी हर वो चीज़ जो इंसान की ज़िंदगी बचाने वाली है वो हलाल है. चंद लोग अपनी कट्टरपंथी सोच और सियासत की वजह से पूरी कौम को जाहिलियत की तरफ धकेलना में लगे हैं. ऐसे कट्टरपंथी एक तरह का धीमा अलगाववाद मुख्यधारा से अलग चलाने की कोशिश करते हैं. गैर मुस्लिमों को वजूद खत्म होने का डर दिखाकर ये अपनी सियासत को चमकाते हैं.

दरअसल, मुद्दा धार्मिक अंधेपन का है, उस कट्टरता का है जो इंसानी ज़िंदगी को बचाने पर भारी है. हराम और हलाल का अगर मौलाना ज़िंदगी बचाने वाली दवाइयों में खोजने लगे तब तो वो अपनी कौम भला करने से रहे. लेकिन सवाल ये है कि आखिर हर मुद्दे को धर्म या मजहब से देखने और दिखाने की जरूरत है क्यों?

हर मुद्दे को इस्लामिक कट्टरपंथी धर्म से क्यों जोड़ देते हैं?
क्या ज़िंदगी बचाने के लिए भी हराम-हलाल देखना सही है?
क्या कट्टरपंथी जानबूझ कर लोगों को अज्ञान के अंधेरे में रखना चाहते हैं?

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इन सारे सवालों का जवाब एक है क्योंकि कट्टरपंथी जमात ये नहीं चाहती कि लोग विज्ञान से जुड़े, आधुनिकता और वैज्ञानिक नज़रिए के साथ ज़िंदगी को देखें. क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो मजहब के नाम कौम को भड़काने और डराने का खेल खत्म हो जाएगा और उनकी दुकान बंद हो जाएगी. एक समय में बेहद आधुनिक रहे तुर्की की मौजूदा स्थिति से कट्टरपंथी अंधेपन का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. वैक्सीन को हलाल और हराम करार देने वाले मौलाना या मुफ्ती दरअसल अपनी की कौम को रूढ़िवाद और कठमुल्लावाद की जकड़ में रखना चाहते हैं ताकि उनकी पूछ बनी रहे. सच ये है कि ऐसे कट्टरपंथी चेहरों ने ही दुनिया के मुस्लिमों को इस्लाम खतरे में है का जुमला उछालकर उनके दिलो-दिमाग को काबू कर रखा है.

ज़रूरी है मुख्यधारा से जुड़ना, कट्टरपंथियों को नकारना

समझना मुश्किल नहीं कि ऐसे कट्टरपंथी चेहरे क्यों अपनी कौम को अंधेरे में ऱखना चाहते हैं वो इसलिए क्योंकि ताकि इनकी दुकान चलती रहे. पूर्व ब्यूरोक्रेट खालिद हुसैन मानते हैं कि ऐसी संस्थाओं और फतवों को सिरे नकारने और खारिज करने का वक्त आ चुका है. ये मॉडर्न मुस्लिम को समझना होगा कि दवा या वैक्सीन धर्म या मजहब देकर नहीं दी जाती, रही बात फतवों की तो ऐसे एक नहीं कई फतवे हैं जो कट्टरपंथी सोच और जाहिलियत की नुमाइंदगी करते हैं.

सच्चाई यही है कि हर छोटे से छोटे औऱ बड़े बड़े मुद्दे पर फतवा जारी कर अंधेरपंथियों की ऐसी जमातें अपनी कम्युनिटी के लोगों की आंखों पर पट्टी डालती रही हैं. लेकिन अब वक्त ऐसे कट्टरपंथियों को जवाब देने का भी है. जहालत के अंधेरे से निकल कर ज्ञान को उजाले की तरफ मुड़ना ज़रूरी है. इस्लामिक कट्टरपंथी नहीं चाहते कि 'कौम' वैज्ञानिक नज़रिया रखे,  इस्लामिक कट्टरपंथी लोगों की सोच अपने को काबू करना चाहते हैं,  ताकि उनकी कट्टरपंथ की दुकान चलती रहे

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लेकिन ऐसे लोगों को जवाब देने का वक्त है. धर्म के नाम पर अपने ही लोगों की ज़िंदगी जो दांव पर रखने की वकालत करता हो वो कौम का भला क्या सोचेगा? कोरोना ने हमें भले एक साल पीछे धकेला हो लेकिन कई साल आगे के लिए तैयार किया है. वो ये कि वैज्ञानिक सोच ही इंसान को बचा सकती है और रहेगा तो ही मजहब बचेगा.

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