नई दिल्ली: राष्ट्र हो या समाज या फिर कुनबा, मौजूदा स्वरूप के निर्माण में इसके इतिहास का बहुत बड़ा योगदान होता है. इसीलिए अगर किसी देश को समाज को तोड़ना हो, उसके आत्म विश्वास को खंडित करना हो तो उसके बच्चों को गलत इतिहास पढ़ाना शुरू कर दीजिए समाज या देश टूट जाएगा.
अफसोस ये है कि ये साजिश सबसे ज्यादा हिन्दुस्तान के साथ हुई है और इसका नतीजा ये हुआ है कि गौरवशाली अतीत के बावजूद हिन्दुस्तान में जाति, महजब और वर्ग के नाम पर बड़ा विभाजन देखने को मिलता है.
मिशनरी मेयो कैथरीन की कलंक कथा
मनुवाद, मनुवादी ये वो लफ्ज है जिसका इस्तेमाल औपनिवेशिक भारत में फिरंगियों ने और आजादी के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने सियासी फायदे के लिए, भारतीय समाज को तोड़ने के लिए बखूबी किया. इन शब्दों की आड़ में भारतीय समाज के विभाजन की उनकी साजिश काफी हद तक कामयाब भी रही.
ये साजिश कैसे रची गई, कैसे इसे खाद-पानी दिया गया और कैसे इसे अंजाम तक पहुंचाने के बाद इसका फायदा उठाया गया इस सच को जानना आज हर हिन्दुस्तानी के लिए जरूरी है.
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20वीं सदी की शुरुआत में एक अमेरिकी मिशनरी मेयो कैथरीन तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत के खर्चे-पानी पर इंडिया आई और इस महिला मिशनरी ने हिन्दुस्तान का बाकायदा भ्रमण किया और उसके बाद उसने साल 1927 में एक किताब लिखी मदर इंडिया.
इस किताब में मिशनरी मेयो कैथरीन ने हिन्दुस्तान की कितनी नकारात्मक छवि पेश की है उसे हम आगे बताएंगे पहले आपको ये बताते हैं कि इस किताब से दुनिया भर में रह रहे हिन्दुस्तानियों की भावना इतनी ज्यादा आहत हुई कि इसके खिलाफ न्यूयॉर्क, सैन फ्रांसिस्को, लंदन और तत्कालीन कलकत्ता में जबरदस्त प्रदर्शन हुए.
न्यूयॉर्क में टाउनहॉल के बाहर इसकी प्रतियां जलाई गईं. ब्रिटेन की संसद और भारत की केंद्रीय असेंबली में इस पर तीखी बहसें हुईं. भारत की तब की केंद्रीय असेंबली में इस पर पाबंदी लगाने की मांग जोर शोर से उठी.
यहां तक कि उस जमाने की तमाम नामचीन हस्तियों महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, ब्रिटेन के तत्कालीन पीएम विंस्टन चर्चिल, सरोजनी नायडू, रूडयार्ड किपलिंग और एनी बेसेंट तक का ध्यान इस किताब ने खींचा.
ऐसा क्या था इस किताब में कि इसका हिन्दुस्तानियों ने इतना विरोध किया और इतनी बड़ी-बड़ी हस्तियों का ध्यान इस पर गया.
मेयो की 'मदर इंडिया' में भारत को कलंकित करने का पाप
दरअसल इस किताब में भारत की इतनी घृणित, कुत्सित और नकारात्मक तस्वीर खिंची गई जिसे पढ़कर ये लगे कि इतना घटिया मुल्क तो कोई हो ही नहीं सकता. मदर इंडिया किताब के पेज नंबर 135 पर जो लिखा गया है उसका हिन्दी अनुवाद हम आपके सामने पेश करते हैं.
'भारत की 24 करोड़ 70 लाख जनता में से लगभग 25 फीसदी यानी करीब 6 करोड़ लोग अनंतकाल से अशिक्षित बनाकर रखे गए हैं. साथ ही उन्हें उनके ही भारतीय भाइयों ने मनुष्य से भी गिरा हुआ बनाकर रखा है. निश्चित ही भारत में अगर कोई रहस्य है, तो वो इस बात में है कि कोई भी देश, समाज, या इंसान किसी भी परिस्थिति में कहीं भी भारतीयों को ये याद दिलाए कि भारत में 6 करोड़ देशवासी ऐसे हैं जिन्हें तुमने मनुष्य होने के सामान्य अधिकार देने से भी मना कर दिया है तो वे पलटकर उस मनुष्य, समाज या राष्ट्र पर जातीय पक्षपात का दोष मढ़ देते हैं.'
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ये किताब साल 1927 में लिखी गई थी तब भारत की आबादी करीब 25 करोड़ या उसके आस-पास थी और मेयो ने अपनी किताब में इकबालिया ऐलान कर दिया कि उनमें से 6 करोड़ लोग मनुष्य मात्र को मिलने वाले अधिकारों से वंचित कर दिए गए हैं.
इसी तरह का जहर वमन इस किताब के एक-एक पन्ने पर किया गया है. मदर इंडिया के पेज नंबर 137 पर क्या लिखा है मेयो कैथरीन ने जरा उस पर भी गौर कीजिए....
'दलितों के बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं सकते. वे सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं ले सकते. अगर वे ऐसी जगह रहते हैं, जहां पानी उपलब्ध नहीं है तो उन्हें दूर से लाना पड़ता है. वे किसी अदालत में प्रवेश नहीं कर सकते. बीमार पड़ने पर अस्पताल नहीं जा सकते, किसी सराय में नहीं ठहर सकते. कुछ प्रांतों में वे सार्वजनिक सड़कों पर भी नहीं जा सकते. मजदूर या किसान के रूप में भी हमेशा उन्हीं को नुकसान उठाना पड़ता है, क्योंकि वे न तो दुकानों पर जा सकते हैं और न ही उन सड़कों से गुजर सकते हैं, जहां दुकानें होती हैं. इसलिए उन्हें अपना सौदा बेचने या खरीदने के लिए दलालों पर निर्भर होना पड़ता है. कुछ को तो इतना गिरा हुआ माना गया है कि वे कुछ बेच नहीं सकते, यहां तक कि मजदूरी भी नहीं कर सकते.
वे केवल भीख मांग सकते हैं और भीख मांगने के लिए भी वे सड़क पर चलने का साहस नहीं कर सकते. उन्हें सड़क से दूर ऐसी जगह, जहां से कोई देख न सके, पर खड़े होकर गुजरने वाले लोगों से चिल्लाकर भीख मांगनी पड़ती है. ये भीख भी उन्हें सड़क से थोड़ा हटकर जमीन पर फेंक दी जाती है. ये भीख भी वे तब तक नहीं उठा सकते जब तब कि भीख फेंकने वाला दृष्टि से ओझल नहीं हो जाता.'
वामपंथियों को पसंद आई मेयो की 'मदर इंडिया'
इस तरह से जहर भरा गया किताबों के जरिए भारतीय समाज में. ये वो जहर है जिसका असर 100 साल बाद भी भारतीय समाज पर साफ दिखाई देता है. अब कमाल देखिए अंग्रेजों ने उस जमाने में इस किताब का अलग-अलग यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कराया और आजादी के बाद वामपंथियों को इस किताब का मजमून इतना पसंद आया कि उन्होंने भारत में इसका बांग्ला, तमिल, तेलगु, मराठी, उर्दू और हिंदी में अनुवाद कराया.
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1950 के दशक तक इसके अलग-अलग संस्करणों की 3 लाख 95 हजार 678 प्रतियां बिक गई थीं. कमाल ये है कि कुटिल वामपंथियों ने अपने सियासी और एजेंडावादी फायदे के लिए मेयो की मदर इंडिया का प्रचार-प्रसार करते हुए महात्मा गांधी के इस किताब पर लिखे गए विचार पर साजिश का काला पर्दा डाल दिया.
क्योंकि उन्हें पता था कि मदर इंडिया पर बापू के विचार अगर भारत वासियों को पता चल जाएंगे तो इस किताब के पन्ने-पन्ने पर चस्पा झूठ का पुलिंदा सार्वजनिक हो जाएगा. लेकिन बदलते हिन्दुस्तान की मांग है कि साजिश की जिन परतों को अबतक पर्दे के पीछे करीने से छुपा कर रखा गया था उसे अब बेनकाब किया जाए.
तो मिशनरी मेयो की जिस किताब को लेकर वामपंथी बल्लियों उछलते हैं और अपनी बेशकीमती थाती मानते हैं, भारत का प्रमाणिक इतिहास मानते हैं उसके बारे में बापू ने उसी जमाने में क्या कहा था. बापू की इस विवेचना को बहुत ध्यान से देखिएगा क्योंकि मोटी किताब मदर इंडिया की मंशा और साजिश की परतों को उन्होंने चंद शब्दों में बखूबी उजागर कर दिया है.
'ये किताब बहुत चालाकी से लिखी गई है. वाक्यों का चुनाव ऐसी चतुरता से किया गया है कि इसके सच होने का झूठा आभास होता है. लेकिन इसे पढ़ने के बाद ये लगता है मानो किसी को गटर खोलकर उसका निरीक्षण करने और फिर उसकी रिपोर्ट बनाने के लिए कहा गया हो. उसे निर्देश दिए गए हों कि गटर से जो दुर्गंध उठे उसका वर्णन मिर्च-मसाला लगाकर किया जाए. अगर कुमारी मेयो ये स्वीकार कर लेतीं कि भारत में आने का उनका उद्देश्य गटरों का निरीक्षण करना है तो उन्होंने जो संकलन किया है उसपर कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी लेकिन उसने तो पूरी तरह गलत और घिनौनी घोषणा कर दी है कि गटर ही भारत है.'
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बापू खुद छूआ-छूत के खिलाफ थे. समाज में भेदभाव के खिलाफ थे. उन्हें ये भी पता था कि भेदभाव या अस्पृश्यता जितनी जमीन पर है उससे कई गुना ज्यादा बढ़ाकर फिरंगी पेश कर रहे हैं ताकि बांटों और राज करो की उनकी नीति फलती-फूलती रहे. पर अफसोस आजादी के बाद जब बापू नहीं रहे तो वामपंथियों ने फिरंगियों के जहरवादी एजेंडे को अपनाकर समाज को तोड़ने की मुहिम शुरू कर दी.
मिशनरी मेयो कैथरीन की मदर इंडिया किताब के भ्रामक प्रचार-प्रसार के साथ और इस मुहिम के एक हिस्से को मनुवाद, मनुवादी, मनुवादी सोच जैसे गढ़े हुए शब्दों के जरिए आगे बढ़ाया गया. NCERT की किताबें वामपंथियों का सबसे अच्छा हथियार बन गईं और इन किताबों में मनुस्मृति जैसे पवित्र ग्रंथ की झूठ के सहारे ऐसी व्याख्या की गई कि समाज का एक बड़ा तबका आज भी उससे बेहिसाब नफरत करता है.
मनु स्मृति का सच और वामपंथी साजिश
मनुवादी शब्द वामपंथियों को अपने जहरीले एजेंडे को आगे बढ़ाने में काफी रास आया. पर एक ठोस उदाहरण के जरिए हम वामपंथियों के इस नफरतवादी एजेंडे की कलई खोलने जा रहे हैं. NCERT की बारहवीं क्लास की इतिहास की किताब के पेज नंबर 39 पर क्या लिखा गया है उसे आप ध्यान से देखिए.
"मनुस्मृति आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधिग्रंथ है. इसे संस्कृत भाषा में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच लिखा गया था."
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साफ-साफ घोषणा कि मनुस्मृति प्राचीन भारत की सबसे प्रसिद्ध विधिग्रंथ यानी कानून की किताब है. अरे भाई मनुस्मृति कानून की किताब कहां से हो गई. क्या इसकी प्रस्तावना में ऐसा लिखा गया है. क्या इसके रचयिता ने इसे कानून की किताब बताया है.
क्या किसी राजा ने इसे कानून की किताब बताकर इसके अनुरूप अपना शासन चलाया और सबसे बड़ी बात क्या इस किताब में कहीं भी ये कहा गया है कि अगर लिखी हुई बातों का पालन नहीं किया गया तो उसे दंड मिलेगा. क्योंकि कानून की किताब तो वही हो सकती है जिसमें दंड का प्रावधान हो.
ये तो तय है कि मनु स्मृति में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया है तो फिर भाई किस आधार पर आपने इसे कानून की किताब घोषित कर दिया. खैर ये लिखने वाले वामपंथी इतिहासकार तो क्या बताएंगे हम बताते हैं कि वामपंथियों ने ऐसा क्यों लिखा और बताया.
NCERT की बारहवीं की इतिहास की किताब के पेज नंबर 39 पर मनुस्मृति को कानून की किताब घोषित कर वामपंथी इतिहासकारों ने इसी पेज पर अपने एजेंडे को कैसे आगे बढ़ाया है वो देखिए.
'चूंकि सीमाओं की अनभिज्ञता के कारण विश्व में बार-बार विवाद पैदा होते हैं इसलिए उसे सीमाओं की पहचान के लिए गुप्त निशान जमीन में गाड़ कर रखने चाहिए जैसे कि पत्थर, हड्डियां, गाय के बाल, भूसी, राख, खपटे, गाय के सूखे गोबर, ईंट, कोयला, कंकड़ और रेत. उसे सीमाओं पर इसी प्रकार के और तत्व भूमि में छुपाकर गाड़ने चाहिए जो समय के साथ नष्ट ना हों.'
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गजब की महीन साजिश रची वामपंथी इतिहासकार भाइयों ने. पहले मनु स्मृति को सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रंथ घोषित किया और फिर उसी ग्रंथ के हवाले से बताया गया कि सीमा विवाद निपटारे के लिए उसमें कैसे हल्के उपाय बताए गए.
यानी हिन्दुओं की सबसे प्रसिद्ध कानून की किताब में कैसी हास्यास्पद बातें लिखी गई हैं ये जहर बच्चों के मन में इंजेक्ट किया जा रहा है और ये देखिए ये बताने के बाद इसपर सवाल क्या पूछा गया.
"क्या ये सीमा चिन्ह विवाद के हल के लिए पर्याप्त रहे होंगे?"
पहले झूठ पढ़ाओ और फिर उसी झूठ की बुनियाद पर फर्जी सवाल भी गढ़ दो. कोई भी छात्र इसे पढ़ेगा तो उसके मन में मनुस्मृति के बारे में क्या धारणा बनेगी. मतलब ये कि बच्चों को यही पढ़ाने की कोशिश है ना कि हिन्दुस्तानियों के पूर्वज कितने मूर्ख थे और कैसे-कैसे बेफालतू के ग्रंथ लिख देते थे. लेकिन आपको ये जानने का हक तो है ही कि मनुस्मृति में जमीन विवाद या सीमा विवाद के बारे में आखिर लिखा क्या है.
दरअसल सीमा विवाद के शांतिपूर्ण निपटारे के लिए मनुस्मृति में कुल 21 श्लोक लिखे गए हैं 245 से लेकर 265 तक. जहरवादी इतिहासकारों ने 20 श्लोकों को तो छुपा लिया बस एक की व्याख्या NCERT की बारहवीं क्लास की किताब में कर दी. हम भी इसी संदर्भ में मनु स्मृति के दो श्लोक आपके सामने रखते हैं और आप खुद फैसला कीजिए कि हकीकत क्या है. श्लोक नंबर 245 को देखते हैं.
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सीमां प्रति समुत्पन्ने विवादे र्ग्रामयोर्द्वयोः।
ज्येष्ठमासि नयेत्सीमां सुप्रकाशेषु सेतुषु॥
इसका मतलब ये हुआ कि
"दो गांवों या दो समूहों का सीमा संबंधी झगड़ा या मुकदमा खड़ा हो जाने पर जेठ के महीने में सीमा चिन्हों के स्पष्ट दिखने के बाद सीमा का निर्णय करें."
अब बच्चों से NCERT की किताब में सवाल करने वाले एजेंडावादी इतिहासकारों से सवाल है कि क्या इस तरह सीमा विवाद निपटारे में कोई दिक्कत है क्या. खैर एक और श्लोक का उदाहरण लेते हैं. श्लोक नंबर 248 में क्या लिखा है उसे देखिए
तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च।
सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च॥
इसका मतलब ये हुआ कि
"जहां दो प्रांतों, राज्यों या समूहों की सीमाएं मिलती हो वहां पर तालाब, कुएं, बाबड़ियां, नाले और देवस्थान यानी मंदिर या यज्ञशालाएं वगैरा बनवानी चाहिए."
कितना सुंदर और लोककल्याणकारी समाधान बताया गया है लेकिन इन्हें छिपा लिया स्वघोषित महा प्रतापी वामपंथी इतिहासकारों ने और उसकी जगह ऐसी चीज को पेश किया जो बच्चों में मनुस्मृति के प्रति हिकारत पैदा करे.
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मनुस्मृति को माओवादी, मेयोवादी, घृणावादी इतिहासकारों ने झूठ का पूरा एक मनगढ़ंत संसार खड़ा कर दिया है. लेकिन अब वक्त आ गया है कि हर हिन्दुस्तानी इस सच को समझे और उसके साथ कैसे छल किया गया है वो जानें ताकि समाज बांटने वाले एजेंडावादी इतिहासकारों की फरेबी मुहिम में पलीता लगे.
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