नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास का वामपंथी सत्यानाश

वामपंथी इतिहासकारों ने भारत की सभ्यता और संस्कृति को अपनी कलम से तहस नहस करने की पूरी कोशिश की है. देश को गुमराह करने वालों की एक और सच्चाई सामने आ चुकी है, जो नालंदा विश्वविद्यालय से जुड़ी है. इस खास रिपोर्ट में पढ़िए करतूत..

Written by - Ravi Ranjan Jha | Last Updated : Dec 26, 2020, 12:09 PM IST
  • ऐतिहासिक तथ्यों पर वामपंथी पर्देदारी
  • झूठ का इतिहास गढ़ने का वामपंथी नुस्खा
नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास का वामपंथी सत्यानाश

पटना: हिन्दुस्तान के इतिहास को लिखते हुए वामपंथी इतिहासकारों ने विचारधारा का ऐसा चश्मा अपनी आंखों पर चढ़ाया कि समूचा इतिहास ही तहस-नहस हो गया. इसका नतीजा ये हुआ कि आजादी के सात दशक बाद भी हम देश का ऐसा इतिहास पढ़ते और जानते हैं जिनका तथ्यों से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं है. प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस को लेकर वामपंथी इतिहासकारों ने जिस तरह से देश को गुमराह किया है वो किसी अपराध से कम नहीं है.

तथ्यों के आईने में नालंदा विश्वविद्यालय का वामपंथी कच्चा-चिट्ठा

प्राचीन भारत का अनुपम गौरव माने जाने वाले नालंदा विश्वविद्यालय की पुण्य भूमि से महज 42 किमी दूर स्थित है बख्तियारपुर जंक्शन. ये बात विवाद से परे है कि इस स्टेशन का नाम उसी क्रूर शासक बख्तियार खिलजी के नाम पर रखा गया है जिसने आज से करीब सवा सात सौ साल पहले उस समय के शिक्षा और ज्ञान के सबसे बड़े वैश्विक केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय को अपनी सनक और ताकत के जोर पर जला कर राख कर दिया था. 

130 करोड़ हिन्दुस्तानियों के मन में मुसलसल ये सवाल उठता है कि जिस क्रूर शासक ने शिक्षा और ज्ञान के पुण्य संस्थान को भी नहीं बख्शा उसके नाम पर स्टेशन क्यों? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए आपको वामपंथी इतिहासकारों की देश विरोधी कारस्तानियों की तह तक जाना होगा जिन्होंने विचारधारा की सनक में 6-7 दशक तक देश को गुमराह किया. नालंदा विश्वविद्यालय की तबाही को लेकर वामपंथी इतिहासकारों ने किस तरह से झूठ का साम्राज्य खड़ा किया अगर आप जानेंगे तो आपके मन में इन इतिहासकारों के प्रति नफरत हो जाएगी. 

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इस देश के एक बड़े नामचीन, मूर्धन्य इतिहासकार हैं डीएन झा. पूरा नाम है द्विजेन्द्र नारायण झा. साल 2006 में ये इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष पद को गौरवान्वित कर रहे थे. इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर साल 2006 में इन्होंने जो भाषण दिया उसपर वामपंथी विचारधारा की जहरीली चाशनी ऐसे लपेटी गई थी कि नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास ही लहूलुहान हो गया. नालंदा विश्वविद्याल के इतिहास के बारे में डीएन झा ने कहा था- "एक तिब्बती ट्रेडिशन के मुताबिक 11वीं शताब्दी के कलचुरी राजा कर्ण ने मगध के बेशुमार बौद्ध मंदिरों और मठों को तहस-नहस कर दिया. तिब्बती टेक्स्ट "पग सैम जोन ज़ांग" के मुताबिक नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों को हिन्दू चरमपंथियों ने जलाया था."

वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों की बड़ी खासियत ये है कि सफेद झूठ को गढ़ते हुए वे बिल्कुल बेखौफ, बेपरवाह, बेफिक्र रहते हैं. आगे-पीछे बिल्कुल नहीं सोचते. भारतीय इतिहास कांग्रेस के साल 2006 के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने हवाला दिया 18वीं शताब्दी की तिब्बती किताब का और शब्द लिखा हिन्दू फैनाटिक्स यानी हिन्दू चरमपंथी. क्या 18वीं शताब्दी में तिब्बत में लिखी गई किताब में हिन्दू चरमपंथी शब्द का इस्तेमाल किया गया होगा. इस शब्द को खुद वामपंथियों ने ही बाद के दिनों में गढ़ा है. 

सबसे दिलचस्प तो ये है कि खुद डीएन झा ने ही पहले ये माना था कि हिन्दुइज्म शब्द का ईजाद अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में किया था. यानी विचारधारा का पागलपन दिलो-दिमाग पर ऐसे हावी है कि ऐतिहासिक तथ्यों के बलात्कार से भी इन वामपंथी इतिहासकारों को परहेज नहीं है.

झूठ का इतिहास गढ़ने का वामपंथी नुस्खा

वामपंथी इतिहासकारों की सबसे बड़ी जगलरी ये होती है कि जब किसी झूठ को गढ़ते हैं तो बड़ी ही चतुराई से किसी संदर्भ या किताब की ओट में छिप जाते हैं. साल 2006 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के मंच से अध्यक्षीय भाषण देते हुए नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने का दोष हिन्दू चरमपंथियों के सिर मढ़ते हुए डीएन झा ने एक और वामपंथी इतिहासकार बीएनएस यादव की किताब का हवाला दिया था और कहा कि बीएनएस यादव ने तिब्बती किताब "पग सैम जोन ज़ांग" के हवाले से ऐसा लिखा है. 

कमाल देखिए कि बीएनएस यादव ने अपनी किताब में ये भी लिखा था कि ये तिब्बत की डाउटफुल ट्रेडिशन है. लेकिन डीएन झा, बीएनएस यादव की किताब के डाउटफुल ट्रेडिशन वाले इस हार्ड फैक्ट को अपने अध्यक्षीय भाषण में पचा गए. क्यों पचा गए? क्योंकि उन्हें इसी झूठ की जहरीली घुंटी हिन्दुस्तानियों के गले उतारनी थी कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नहीं बल्कि हिन्दू चरमपंथियों ने जलाया था और जब इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के मंच से उसका अध्यक्ष ये झूठ फैलाएगा तो विश्वास ना होते हुए भी लोग मानने को अभिशप्त तो हो ही जाएंगे.

तिब्बती किताब में लिखा क्या गया था?

हालांकि इन सब के बीच आपके मन में ये सवाल तो रह ही गया होगा कि डीएन झा ने जिस तिब्बती किताब का हवाला दिया उसमें दरअसल लिखा क्या है? सबसे पहले आपको ये बता दें कि "पग सैम जोन ज़ांग" किताब सुंपा पो येके पाल जोर ने लिखी थी जिसका जीवन काल 1704 से 1788 ईस्वी के बीच माना जाता है. यानी नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस के करीब 500 साल बाद.

"पग सैम जोन ज़ांग" किताब का प्रामाणिक अनुवाद सरत चंद्र दास ने अपनी किताब History of the rise, progress and downfall of Buddhism in India में किया है. अब जरा देखते हैं कि डीएन झा ने इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में जिस "पग सैम जोन ज़ांग" किताब का हवाला देकर नालंदा विश्वविद्यालय जलाने का दोष हिन्दू चरमपंथियों को सिर पर मढ़ा था उसमें लिखा क्या है? सरद चंद्र दास की किताब History of the rise, progress and downfall of Buddhism in India के पंज नंबर 92 पर इस प्रसंग के बारे में लिखा गया है.

"दो गैर-बौद्ध भिखारी के ऊपर एक युवा बौद्ध भिक्षु ने पानी फेंक दिया. इन लोगों में झगड़ा हुआ और इन दोनों भिखारियों ने पास के एक गड्ढे में 12 साल तक सूर्य भगवान की तपस्या की और दैवीय शक्तियां प्राप्त की. जिसके इस्तेमाल से इन दोनों ने आग की वर्षा की और नालंदा के सभी स्तूपों को जला दिया और नौ मंजिले पुस्तकालय को पानी में बहा दिया."

ऐतिहासिक तथ्यों पर वामपंथी पर्देदारी

इसी सच को अपने हिसाब से पेश किया है डीएन झा ने. जो वामपंथी तंत्र-मंत्र सिद्धि वगैरा को बकवास की बात बताते हैं वो ही ये स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सिद्धियों के जरिए अग्निवर्षा करके नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया गया. हंसी आती है और हैरानी भी होती है. कमाल देखिए नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस की इस चामत्कारिक थ्यौरी पर उन्हें भरोसा है लेकिन घटना के समकालीन मौलाना मिनहाजउद्दीन की किताब तबकत-ई-नसीरी पर भरोसा नहीं है.  मौलाना मिनहाजउद्दीन ने तबकत-ई-नसीरी में नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में लिखा है-

"नालंदा विश्वविद्यालय पर बख्तियार खिलजी ने अपने दो सौ घुड़सवारों के साथ अचानक हमला किया. यहां रहने वाले ज्यादातर ब्राह्मण थे और इन सब की हत्या कर दी गई. यहां बहुत सारी किताबें थीं. बख्तियार खिलजी लूट के माल के साथ सुल्तान कुतुबद्दीन ऐबक के पास पहुंचा जिसने उसका खूब सम्मान किया."

कहने की जरूरत नहीं कि नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस पर इससे प्रमाणिक कोई दस्तावेज नहीं हो सकता क्योंकि ये उस घटना के समकालीन मौलाना मिनहाजउद्दीन ने खुद लिखा है. लेकिन एजेंडावादी वापमंथी इतिहासकार इसके बारे में झूठ का पुलिंदा गढ़ते हुए शर्म तक को घोलकर पी जाते हैं. वामपंथी इतिहासकारों की समूची लेखनी झूठ की बुनियाद पर होती है.

तथ्य उनके विचारधारा से अगर मेल नहीं खाए तो वे उसे या तो छिपा लेते हैं या फिर बदल देते हैं. नालंदा विश्वविद्यालय की बर्बादी के सच को छिपाने के लिए उन्होंने इतिहास लेखन की सारी मान्यताओं की एक तरह से हत्या कर दी और इसी झूठ का ये असर है कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से महज 42 किमी दूर उसे जलाने वाले, बर्बाद करने वाले के नाम पर स्टेशन है बख्तियारपुर जंक्शन.

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