नई दिल्लीः पांच जून, विश्व पर्यावरण दिवस, एक ऐसा दिन जो पर्यावरण की चिंता करने के लिए निश्चित किया गया है. कई सालों से आयोजित हो रहा यह दिवस पर्यावरण के साथ साल भर हो रहे दोहन की भरपाई करने में असमर्थ रहा है. आज दुनिया भले ही कोरोना संकट से जूझ रही है और तंगहाल है, लेकिन इस भयंकर स्याह पक्ष के पीछे कहीं एक उजली तस्वीर भी है. तस्वीर है, स्वच्छ पर्यावरण की, साफ वातावरण की और साफ हवा-पानी की.
पिछले कई सालों से पर्यावरण स्वछ्ता के लिए जो अरबों-करोड़ों खर्च होते थे, लेकिन फिर भी इस समस्या का कोई हल नहीं निकल कर आ पाता था. बीते दिनों यह आंखों-देखा हाल रहा कि 300 किलोमीटर की दूरी तक से हिमालय के पहाड़, बर्फ से ढकी चोटियां नजर आ रहे हैं.
गंगा का पानी जहां बेहद बुरी स्थिति में था, वहां भी निर्मल हो चुका है. इसके साथ ही यमुना नदी, जिसका प्रदूषण पैमानों से ऊपर था, वह भी अपनी अविरल लहरों के साथ बह रही है. लॉकडाउन के कारण जिंदगी भले ही थमी रही, लेकिन प्रकृति एक बार फिर चल पड़ी.
हवा भी हो गई साफ
इसका सबसे अधिक असर हवा की गुणवत्ता पर भी पड़ा है. आइआइटी दिल्ली, चीन की फुदान और शिनजेंग युनिवर्सिटी में एक शोध सामने आया है. इसके मुताबिक लॉकडाउन के पहले महीने में 22 उत्तर भारतीय शहरों की एयर क्वालिटी बहुत बेहतर हुई है. कई जगह तो इसमें 44 फीसदी तक का सुधार देखा गया है. इस मामले में दिल्ली में हवा की शुद्धता सबसे बेहतर पाई गई.
हवा की शुद्धता ने बढ़ाया जीवन दर
श्वसन की प्रक्रिया में ऑक्सीजन लिए जाने की प्राकृतिक अनिवार्यता के बीच यह भी जरूरी है कि हवा की गुणवत्ता ठीक हो और ऑक्सीजन का स्तर भी ठीक लेवल पर हो. बीते कई सालों में श्वसन के कारण श्वांस रोगियों की संख्या काफी बढ़ी है.
इसके साथ ही फेफड़े के रोगियों में भी वृद्धि रही है. राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो यह पिछले पांच सालों में यह हर बार सर्दी के शुरुआती दिनों में गैस चैंबर में तब्दील होती रही है.
कम हुई हवा में एरोसॉल की मात्रा
लॉकडाउन के बाद इस स्थिति में काफी बड़ा बदलाव मापा गया है. अगर हवा की शुद्धता इसी स्तर की बनी रहे तो देश में 6 लाख 50 हजार लोगों की जान बचाई जा सकती है. जो प्रदूषण की वजह से प्रति वर्ष अपनी जान गंवा देते हैं.
इसी तरह नासा की सेटेलाइट तस्वीरों से भी सामने आया है कि लॉकडाउन के बीच हवा में घातक एरोसॉल की मात्रा पिछले 20 सालों में सबसे कम पाई गई है. एरोसॉल फेफड़े और दिल की बीमारी का मुख्य कारक होता है.
प्रदूषण बढ़ाने वाले कारक पूरी तरह रहे बंद
वाहनों के थमने, इंडस्ट्री और व्यावसायिक गतिविधियों के बंद होने से हवा में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) का स्तर कम हुआ और हवा में घातक SO2 और NO2 गैसों का स्तर तेज़ी से घटा है. इंडस्ट्रीज से निकलने वाला वेस्ट पानी में नहीं घुला और नदियों के पानी की शुद्धता अपने सबसे बेहतरीन स्तर पर पहुंच गई.
गाड़ियों से होने वाला नॉइज पॉल्यूशन पर रोक लगी। इससे होने वाली कई मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम में जबर्दस्त कमी आई. कंस्ट्रक्शन साइट से उड़ने वाली धूल के चलते होने वाली कई बीमारियां जैसे दमा और ब्रोंकाइटिस की दर में बहुत कमी आई है.
झारखंड और कर्नाटक में भूकंप के झटकों से सहमे लोग
...लेकिन इस धरोहर को बचाना भी जरूरी
लॉकडाउन के बीच हमने यह तो समझ लिया कि धरती और पर्यावरण का बचाव केवल इसी तरह से हो सकता है कि हम प्रकृति और अपनी दोनों की ही जरूरत के बीच साम्य बिठा कर रखें.
तीन महीने की इस तालाबंदी के बाद जो सुखद परिणाम पर्यावरण के लिहाज से सामने आए हैं, सवाल है कि क्या हम इसे ऐसे ही बचा कर रख पाएंगे?
रिमझिम बरसात से भीग रहे हैं देशभर के मैदानी इलाके, मानसून पर निसर्ग का दिख रहा असर